सत्यनारायण पटेल |
कहने में क्या
बुराई है..? मैं अगर कहूँ
कि कल दिन में तारे
इस क़दर चमक रहे थे
कि सूरज नज़र नहीं
आ रहा था, दिन में बहुत
भयानक अंधेरा
था और जब मैं ठीक साढ़े बारह बजे कोर्ट के सामने से गुज़र रहा था, कुछ
भी दिखायी नहीं दे रहा था, जबकि
गाड़ी की सभी लाइट्स झकाझक चालू थीं। आप क्या कहेंगे…? मेरे
कहे पर हँसेंगे…! या
मुझे खिसका हुआ कहेंगे ..! या फिर शायद मुझे किसी तरह के नशे में डूबा समझें…! यक़ीन
हैं आप मुझे कुछ भी कहेंगे.. जो चाहे समझेंगे, पर मेरी बात पर भरोसा न
करेंगे..! क्योंकि मेरा कहा एक-एक लफ़्ज झूठ है, तो मैं आपसे कहाँ कह रहा
हूँ कि मैं ही हूँ- हरिशचन्द्र की औलाद। इन दिनों ख़ुद को हरिशचन्द्र की औलाद
साबित करने पर तुला है जो भ्रष्टों का मुखिया, वह
मन मोहक शख़्स कोई और है… मैं
नहीं। मैं तो महज़ अदना-सा क़िस्सागो हूँ। यह जो क़िस्सा या दास्तानगोई कहने जा रहा
हूँ, इसका
भी वाक्य दर वाक्य और पैरा दर पैरा झूठ है। हम सवा अरब लोग जिस विशाल धरती के
टुकड़े पर रोते-झिकते रहते हैं, इस पावन धरती पर ऎसा तो कभी
घटा ही नहीं जैसा मैं कहने वाला हूँ। और राज़ की बात यह कि असल में..मैंने आमिर खाँ
साहब (इन्दौर वाले) के सिवा, कभी किसी आमिर, ख़दीजा, असद
खाँ या फिर रमा सिंह का नाम नहीं सुना है। फिर भी उनके साथ हुए न्याय का क़िस्सा
सुना रहा हूँ। अगर आपको मनगढंत और झूठे क़िस्से-कहानियाँ सुनने-पढ़ने का कीड़ा है..
तो ज़रूर सुने-पढ़ें।
लेकिन यह मेरा शौक़ नहीं, … बल्कि मज़बूरी
है।
क्योंकि एक बार मुझे
झूठे कीड़े ने
काट लिया
था।
कीड़ा कुछ ऎसी प्रभावशाली
और झूठी नस्ल का था, कि
जिसे एक बार काट लेता। वह
ज़िन्दगी
भर झूठ की सेवा में जुट जाता।
मुझे ही देख लो..। उस कीड़े के काटने के बाद मुझे झूठ बोलना जन्नत में टहलने जैसा
सुक़ून भरा लगने लगा।
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आमिर ने अपनी अम्मी ख़दीजा
से सुना था कभी। राम, सीता
और लक्ष्मण चौदह
बरस का बनवास काट जब अयोध्या में वापस लौटे, तो लोगों के ह्रदय में
ख़ुशी और प्यार के मारे समुद्र की-सी लहरें उठीं थीं। वह दृश्य देखती जनता की
भाव-विह्वल आँखों से अश्रु मोतियों की लड़ी-सी झड़ी जैसे रुकना भूल गयी थी।
जब आमिर ने अपनी अम्मी से
यह राम कथा सुनी, तब
वह मजरुह इस्लाम सेकेंडरी स्कूल में आठवीं कक्षा का छात्र था। उसी बरस सच्ची
उन्मादी भीड़ ने अयोध्या में एक ढाँचे को ढहाने का गौरवमयी आनन्द प्राप्त किया था।
तथाकथित महान देश की धर्मनिर्पेक्ष छवि को और चमकाया था। हालाँकि उस चमक से कुछ
लोग बुरी तरह चमक भी गये थे। उनके मन में दहशत का गाढ़ा स्याह रंग भर गया था। कुछ
के मन में बदला लेने जैसे फितुर के अंकुर फूट आये थे। लेकिन अपने क़िस्से का आमिर
उन सबसे अलग था। और फिर उन दिनों उसकी उम्र भी क्या थी..? ख़ूब
से ख़ूब चौदह-पन्द्रह बरस। और आमिर के स्वभाव की तो पूछो ही मत- एकदम अल्लाह की
गाय। हालाँकि उस उम्र में बच्चे ज्यादा शरारती हो जाते हैं। उसके स्कूल में
दोस्तों और शिक्षकों के बीच भी उसकी छवि अल्लाह की गाय की ही थी।
जब चार-पाँच बरस का
था, तब
कभी-कभी ख़दीजा
को लगता- छोरा कहीं मंद बुद्धि
तो नहीं…? पर
ऎसा कुछ नहीं
था। बस.. वह कुछ अन्तर्मुखी था और अपने भीतर ख़ुश भी रहता था।
लेकिन ख़दीजा को ऎसा शायद
इसलिए भी
लगता था, क्योंकि तब-तक
आमिर की पढ़ने में भी
कोई ख़ास
रुचि नहीं थी।
हाँ.. क़िस्से-कहानी सुनने में रुचि
थी, जितने चाहो
सुनाओ। लेकिन ख़दीजा
अ..आ..इ..ई, ए.
बी. सी.डी. या फिर अलीफ़.. बे..पे..सिखाने की कोशिश करती, तो
फिर वह
भीतर ही भीतर खिन्न हो उठता। कुछ-कुछ बेसन के लड्डू-सा
बिखरने लगता। इसीलिए उसे स्कूल में भी एक-दो साल देरी से भेजा गया था।
आमिर को स्कूल में भले देर से
दाखिल किया
था, पर
उसने स्कूल जाना
जल्दी
ही बन्द कर दिया था। स्कूल के प्रति उसके मन में पैदा हुई
अरुचि फिर कभी रुचि में तब्दील न हुई। उसके वालदैन ख़दीजा और असद खाँ ने अपने तईं
समझाया कि अभी से स्कूल मत छोड़। पर वह छोड़ चुके स्कूल से फिर न जुड़ सका। हुआ
यूँ कि ढाँचा ढहने के बाद उसके स्कूल में जो क़िस्से-कहानियाँ सुनने को मिलती, वह
उसे न सुहाती। यूँ समझ लें कि क़िस्से-कहानियाँ सुनने का शौक़ीन होकर भी….क़िस्से-कहानियों
से तंग आकर ही स्कूल जाना बन्द कर दिया। शायद उसे विभत्स क़िस्से-कहानियाँ पसंद
नहीं थीं। स्कूल छोड़ने के बाद कुछ दिन तक उसका मन बहुत खिन्न रहा। वह भीतर ही
भीतर नाख़ुशी से भरा रहा। उसे अपनी नाख़ुशी की वजह मालूम थी। पर वह वजह किस वजह से
थी यह शायद मालूम नहीं था। हालाँकि उसके मुहल्ले, स्कूल और पूरे देश में ऎसे
लोग भरे पड़े थे, जिन्हें
वजह के पीछे की वजह और शक्लें मालूम थीं। उन दिनों कुछ लोग बदला लेने की भी बात
सोचते-करते। लेकिन आमिर के मन में कभी बदले की भावना घर न कर सकी थी। वह कभी किसी
को नुकसान पहुँचाने का न सोच सका था।
कभी-कभी ख़दीजा अपने पड़ोस में रहने
वाली किरायेदार
रमा सिंह
से कहती- आमिर तो पूरा राम पर
गया है। अल्लाह…. मेरे
राम पर
दया करना।
उन दिनों आमिर के अब्बू असद
खाँ ज़िन्दा थे। बड़े ख़ुश मिज़ाज़ और नेक दिल इंसान। पाँचों वक़्त के नमाजी। जबान,ईमान
और लंगोट के पक्के। बकर दाढ़ी, सफ़ेद सलवार-कुर्ता और सिर
पर गोल टोपी उनका स्थायी पहनावा था। कोई नशा था जीवन में… तो
सिर्फ़ काम का। अल्लाह की बन्दगी का, और कोई शौक़ था तो वह पान का, आँखों
में सुरमा आँजने का, और
कपड़ों पर इत्र छिड़कने का।
असद खाँ का सब्जीमंडी में खिलोनों का
छोटा-मोटा कारोबार था। आमिर
आठवीं
के बाद स्कूल नहीं
गया
और असद खाँ के
साथ कारोबार में हाथ बँटाने
लगा था। चार-पाँच
साल की
मेहनत और
लगन से
आमिर कारोबार को अच्छे से समझ गया था। किन से लेन-देन होती थी। कहाँ से कच्चा माल
लाना होता और कहाँ तैयार खिलोने भेजना होते थे। बाज़ार में कौन-से खिलोनों की माँग
बढ़ेगी…और
कौन-से की नहीं..!
आमिर को काम करते
देख असद खाँ ख़ुश
थे।
उनके मन में सुकून था
कि आमिर ने अच्छे-से काम-धंधा संभाल लिया था। अब तो वे आमिर का निकाह करने का मन
बना रहे थे। ख़दीजा ने तो अपनी फूफेरी बहन की लड़की गुलबानो को निगाह में निकाल भी
रखी थी। गुलबानो को आमिर भी जानता था…. क्योंकि वह आमिर की बहन
शहनाज के निकाह में ऎसी नाची थी….कि नाच बन्द होने के बावजूद
…जैसे
जारी छूट गया था, मुहल्ले
की आँखों में उसका नाच।
जब मुहल्ले की आँखों में ही न थमा उसका नाच, तो
फिर आमिर और ख़दीजा की आँखों में कैसे थमता..?
शहनाज का निकाह हो गया। सभी मेहमानों
की वापसी
हो गयी। गुलबानो भी अपनी अम्मी के
साथ घर
लौट गयी।
लेकिन बची
रह गयी आमिर और ख़दीजा की आँखों में सुरमे की तरह गुलबानो की स्मृति। उसकी
चूड़ियों और पायलों की वह आवाज़ जो नाचते वक़्त होती थी। अभी भी मन के फ़र्श पर उसकी
हँसी के दाने टप्पे खा रहे थे। उसका पीला दुपट्टा जूही के इत्र से महक़ता आँखों के
भीतर फरफरा रहा था।
शहनाज के निकाह के बाद, ख़दीजा
जब भी आमिर के क़रीब होती। उसे अलसाये
और खामोश समंदर के
किनारे होने का-सा महसूस होता। वह
खोजती नज़रों से
कुछ
सूँघती-खोजती। एक उम्र के अनुभव से
हरी-भरी ज़मीन
पर खड़ी ख़दीजा समझ रही थी, समंदर कहीं
और नहीं आमिर के मन में ठहरा
है। ख़दीजा
अपनी समझ को जाँचने के लिये.., सूने दरवाज़े की तरफ़ ऎसे
देखने लगी.. जैसे किसी को दूर से दरवाज़े तरफ़ आता देख रही हो .. फिर यों ही झूठ-मूठ
में कह उठी- .. गुलबानो …।
आमिर के मन में जाने
किस छोर से
अचानक आँधी
चली। खामोश
समंदर सितार के
तारों
की तरह थरथरा उठा।
गुलाबी लहरे मन के नाजुक किनारों से टकराने लगी। आमिर के चेहरे पर जैसे हवा ने
गुलाल मल दिया। कूल्हे में जैसे खटिया की ईंस की कोई चोंप चुभी हो, यों
खड़ा हुआ। आँखें उगते सूरज की रोशनी-सी चमक उठी। लेकिन जब दरवाज़े पर गुलबानो न
दिखी… तो
चेहरे के गुलाल का रंग स्याह हो गया। साँझ ने जैसे रोशनी का जाल समेट लिया।
अनजान बनी आमिर को देखती ख़दीजा
मन ही मन कह उठी- गुलबानो तो
सीता जैसी है.... अल्लाह.. मेरे राम और सीता पर.. महरबानी की
ठंडी और रोशन छाँव रखना।
फिर वह आमिर से मुखातिब हो
बात बनाती बोली-
सोच रही हूँ कि
गुलबानों के घर हो आऊँ…। तू
चलेगा मेरे साथ..।
-जी अम्मी जैसी आपकी मर्ज़ी… आमिर ने कहा था।
गुलबानो की अम्मी आइशा, ख़दीजा
की फूफेरी बहन थी। ख़दीजा
के मन में
भी चटापटी होने लगी। उसने आइशा से फ़ोन पर
बात की
और दूसरे
दिन सुबह
आमिर को लेकर पहुँच
गयी। गुलबानो और आमिर तो घर
में ही किसी कमरे में या छत पर खो गये। ख़दीजा,आइशा और आइशा के शोहर
सुल्तान मियाँ आपस में बतियाने लगे। ख़दीजा ने शहद की मिठास के-से लहज़े में आमिर
का पूरा क़िस्सा सुनाया। गुलबानो के अम्मी-अब्बू को भी कोई ऎतराज न हुआ। क्योंकि वे
जानते ही थे कि आमिर खाने-कमाने की राह पर सधे क़दम बढ़ रहा है। उन्होंने इतना ज़रूर
कहा- असद खाँ साहब से भी तो पूछना होगा।
ख़दीजा ने कहा- मैंने रात ही
को उनसे बात की
थी। बोले-
बच्चे
ख़ुश हों तो हमें क्यों ऎतराज हो..? कुछ जगह खिलोने
भेजने थे, वर्ना वे
भी आते
ही।
दोनों परिवारों में निकाह को
लेकर तरह-तरह से सोच-विचार होने लगा। कभी ख़दीजा फ़ोन पर बहन आइशा और होने वाली
समधन के साथ कोई सलाह मशविरा करती। कभी सुल्तान मियाँ फ़ोन
लगा असद खाँ से कुछ सलाहियत लेते-देते। कभी गुल और आमिर ख़्वाब महल में खोये होते।
सभी को शुभ मुर्हूत का इंतज़ार था। छोटी-मोटी तैयारियाँ चल रही थीं।
तभी एक अड़चन पैदा हो गयी। हुआ यूँ कि
एक दिन
खिलोनों के गोडाऊन पर आमिर कुर्सी
पर बैठा हिसाब-किताब
लिख रहा था
और मज़दूर खिलोनों के
पैकेट उठा-उठाकर लोडिंग
आॉटो में भर
रहे थे। हमेशा की
तरह काम ठीक-ठाक चल
रहा था। तभी अचानक आमिर
अपनी कुर्सी पर फैल-सा गया। दर्द के मारे उसका चेहरा बिलबिलाने लगा। चेहरे पर
अजीबो-ग़रीब डरावनी और ज़र्द लहरें उबरने-डूबने लगीं। आँखों की पुतलियों की चमक
बुझती-सी लगने लगी। वह ऎसे कराहने लगा जैसे कोई उसके गुर्दों को चीर रहा हो। दर्द
की बल्लम जैसे कराह की राह में घुप गयी हो। नथुनों की साँस खींचने की जैसे ताक़त ही
चूक गयी हो। पेशानी से पसीना इस क़दर फूटने लागा, मानो पेशानी में झारे पड़
गये हो।
एक मज़दूर ने कन्ठ फाड़ती हुई आवाज़ में असद खाँ को पुकारा।
असद खाँ सड़क पार पान की
गुमटी से
पान खाने
गया था। चूँकि सड़क
पुरानी दिल्ली की थी और राज मार्ग जितनी चौड़ी न थी, इसलिए मज़दूर की आवाज़ पूरी
शिद्दत से असद खाँ के कानों में दाखिल हुई थी। चीख़ने के बाद मज़दूर को लगा- जैसे
गले की पतली नली से कोई मोटी-तगड़ी और खुरदरी चीज़ भीतरी सतहों को उसेड़ती निकली थी, जैसे
गले से आवाज़ का रेशा-रेशा एक बार में ही सोरती हुई ले गयी हो और अब कभी ज़रूरत पड़ी
तो क्या करेगा…?
मुँह में पान दबाये असद खाँ ने
सड़क पार से
देखा-
समुद्र से बाहर रेत पर पड़ी मछली-सा आमिर तड़प
रहा था। असद खाँ को
नहीं पता- ‘ सड़क
पर कीड़े-मकौड़ों की
तरह
रेंगती वाहनों की कतारों को’ कैसे
पार की..? एक-दूसरे
वाहनों के बीच के छेकों में से बचते-बचाते या हनुमान की तरह छलाँग लगाकर। पान जो
उसने मुँह में दबाया था, अब
मुँह में नहीं था। उसे नहीं मालूम- मुँह से बाहर गिर गया या फिर थूक के साथ बग़ैर
चबाया ही निगल गया था। असद खाँ के बदन से पसीना यों चूने लगा जैसे उसे बदन चूने का
कोई पुराना लाइलाज मर्ज़ था। पैरों की मौजड़ियाँ यों भीग गयी मानो रानों और
पिंडलियों पर पसीने की नहीं, पेशाब की रेलें फिसलकर
मौजड़ी में समा रही थीं। असद खाँ ने पानी की बोतल उठायी, तो
फिसल कर गिर पड़ी। भीतर ही भीतर काँपता-थरथराता कि एक ही आँख है, फूट
गयी तो… ज़िन्दगी
बुझ जायेगी।
फिर भी हिम्मत का दामन न असद खाँ ने
और न ही
मज़दूरों ने
छोड़ा। आमिर को लोडिंग रिक्शे में किसी सामान की
तरह झटपट
डाला और रिक्शे को अस्पताल की
ओर ले उड़े।
डॉक्टर ने तुरत-फुरत दर्द हरने वाली गोली दी। पिचकारी लगायी।
सोनोग्राफ़ी की। पता चला- आमिर की किडनी में एक पत्थर आकार ले बैठा है।
डॉक्टर ने आधा-एक घन्टे में दर्द
को सुला दिया। आमिर
की आँखें ठीक से
खुल गयी।
भीतर पत्थर
चुभने का संस्मरण वह
असद
खाँ को
सुनाने लगा। पास
ही खड़ा डॉक्टर मुस्कराकर बोला- डोंट वरी… सब
ठीक हो
जायेगा। स्टोन नाइन प्वाईंट टू..टू.. एम एम का ही है।
थोड़ी देर बाद असद खाँ को
डॉक्टर ने अपने केबिन
में बुलाकर
समझाया- स्टोन
को निकालने के दो तरीक़े हैं… एक
तो यह कि मिनी आॉपरेशन
कर स्टोन को बाहर निकाल दें…। दूसरा यह
कि लेजर से स्टोन को
क्रस कर पेशाब
के रास्ते बाहर निकाल दें…। पहले का ख़र्चा इतना
है..और दूसरे का इतना… अभी
का इतना हुआ है..। आप विचार कर लो.. जैसा आप चाहेंगे.. वैसा ट्रीटमेंट कर देंगे..
हम तो बैठे ही आपकी सेवा के लिए हैं।
असद खाँ ने कहा- जी… बहुत-बहुत
शुक्रिया जनाब….आप
बच्चे की
साँस वापस ले आये… मेरा
तो दम ही निकल रहा था..। मैं सोच-विचार कर बताता हूँ।
असद खाँ ने घर पहुँचकर अपनी
पत्नी
ख़दीजा को आमिर के बारे में बताया…. ख़दीजा
की साँस ऊपर-नीचे होने लगी। बोली- हाय अल्लाह…. कहाँ
है मेरा राम..? कैसा
है…? मुझे
ले चलो उसके
पास…वह
तो जैसे जान
छोड़ने लगी। हदश के मारे दो बार फ़ारिग़ होने जाना पड़ा। असद
खाँ ने उन्हें पानी और गुलुकोस पिलाया। धैर्य से समझाया… तब
कहीं से जान में जान की वापसी हुई।
आस-पड़ोस में बात फैली। लोग आमिर
के बारे में पूछने लगे।
कुछ पत्थरी
की दवा बताने लगे।
किसी ने देशी दवा सुझायी। किसी
ने बीयर पिलाने की सलाह दी। रमजान चचा पराठे वाले ने कहा- होम्योपैथिक डॉक्टर को
दिखाओ…। वो
अपने यहाँ पराठे का नाश्ता करने आते हैं…पत्थरी को घुला देते हैं..।
चाहो तो फ़ोन पर बात कर लो..लो लिखो नम्बर..। कहना- रमजान चचा पराठे वाले के यहाँ
से बोल रहा हूँ।
असद खाँ ने फ़ोन पर होम्योपैथिक डॉक्टर से बात
की। डॉक्टर ने सलाह दी- पत्थरी में पेट को चीरवाना-फाड़वाना नहीं। न पत्थरी भीतर
तुड़वाना-फुड़वाना। आप तो मरीज की उस अस्पताल से छुट्टी करवा लो….मैं
मीठी गोलियों से गला-घुला कर पत्थरी को पैशाब के रास्ते बाहर निकाल दूँगा। बात, रमजान
चचा, असद
खाँ और ख़दीजा को ही नहीं, पूरे
आस-पड़ोस को जँच गयी।
आमिर का होम्योपैथिक इलाज
शुरू हो गया। असद खाँ और
ख़दीजा ने विचार किया-
अब जब तक पेट का
पत्थर न गले निकाह करना
ठीक नहीं। बात गुलबानो के
परिजन
को भी बता दी। उन्हें
भी कोई ऎतराज न लगा।
आमिर के घर से क़रीब दो-तीन सौ मीटर की दूरी पर रमजान चचा की पराठे की दुकान थी और
उससे कुछ क़दम दूरी पर होम्योपैथिक डॉक्टर का क्लिनीक था। आमिर आठ-पन्द्रह दिन में
एक बार डॉक्टर से दवा ले लेता। महीने में एक बार सोनोग्राफ़ी करवाकर देखता कि पत्थर
कितना घुला-गला। पत्थर चूँकि थोड़ा ढीट क़िस्म का था.. उसकी गलने की गति बहुत कम थी, पर
गलना जारी था।
जब आमिर अपनी किडनी में कब्ज़ा जमाये पत्थर को
खदेड़ने में लगा था, उन
दिनों महान
देश का
प्रधान मंत्री एक ऎसा तुकांत
कवि
था, जिसे
भाँग का अंटा और गाय
का मांस बेहद पसंद था। वह एक ढाँचे को ढहाने के दम
पर प्रधान मंत्री की कुर्सी तक पहुँचा था। ढाँचे को जिस तरह से ढहाया गया था, उससे
कई लोगों के मन में महान देश की धर्मनिर्पेक्षता की मूर्ति भी ढह गयी थी और उनके
मन में इस देश की बुनियाद ढहाने के मंसूबे पनपने लगे थे।
फिर एक दिन अख़बारों के पन्ने रंग
गये..टी.वी. चैनलों के स्क्रीन पर चीख़े सुनायी पड़ने लगी। सिलसिलेवार बम धमाकों
से रायसीना टीले पर खड़ी ईमारत काँप उठी। कवि के भाँग के अंटे की साइज बड़ी हो
गयी। गाय का मांस बेस्वाद लगने लगा। पुलिस और तमाम तरह के रक्षकों की नींद के
खुरपड़े झड़ने लगे थे। वे बेचैन आत्मा की तरह ज़मीन के नीचे पाताल तक और आसमान से
ऊपर अन्तरिक्ष तक में आतंकवादियों को खोजने लगे थे। उन्हें खोजा ही जाना था। वे
ब्रह्मण्ड में कहीं छिप नहीं सकते थे। कवि का आदेश तो था ही… पुलिस
और तमाम तरह के रक्षकों की इज़्ज़त भी दाँव पर लगी थीं। खोजते-खोजते छः-सात महीने हो
गये थे, एक
चींटी भी हाथ नहीं लगी थी।
लेकिन इधर आमिर की पत्थरी काफ़ी गल-घुल कर
पेशाब में बह
गयी थी। फिर से
उसके निकाह की
बात
जोर पकड़ने
लगी थी। उन्हीं
दिनों समझौता
एक्सप्रेस
की शुरुआत हुई थी। यह
प्रयास भी कवि का
ही था। असद खाँ और ख़दीजा
ने सोचा-
क्यों न…. समझौता एक्सप्रेस से जाकर
आमिर अपनी बहन शहनाज को लिवा लाये। शहनाज का निकाह कराची में किया था। शहनाज का
शोहर… आमिर
के वालिद के मामा का लड़का था।
एक दिन आमिर
समझौता एक्सप्रेस में बैठ शहनाज के
घर पहुँच
गया। उसने एक महीने का वीजा लिया था। सोचा- आपा
का ससुराल अच्छे-से घुमेगा। अपने मुल्क से कटा हिस्सा देखेगा…! देखेगा
कि शरीर से अलग होकर शरीर का अंग कैसे जीवित रहता है। सच में.. वह घुमा भी ख़ूब..।
अपने दूल्हा भाई के साथ कराची, रावलपींडी, एबटाबाद, इस्लामाबाद
और लाहौर की वह जेल….जहाँ
भगत सिंह और उनके साथियो को सजा दी गयी थी। दूल्हा भाई के साथ घुमते-भटकते एक
महीना पता ही नहीं चला, और
वापसी का वक़्त हो गया। आना भी चाहता था, क्योंकि वापसी के दो माह
बाद उसका निकाह था। लेकिन तभी आमिर के भाग्य पर पत्थर पड़ गया। उसे पिलिया हो गया।
डॉक्टर ने बीस दिन की दवा और एक महीने का पूरी तरह आराम लेने का सुझाव दिया। ऎसी
हालत में शहनाज और दूल्हा भाई ने भी आने नहीं दिया। वीजा अवधि को बढ़ाना पड़ा।
जब ठीक होकर
वापस अपने वतन आया।
सबसे पहले अपने होम्योपैथिक डॉक्टर के पास गया।
पिलिया के बारे में बताया।
पत्थरी की सोनोग्राफ़ी करवायी। डॉक्टर ने कहा- अभी एक-दो माह और दवा चलेगी…।
एक-दो माह में पत्थर पूरी तरह गल जायेगा। क़रीब दो माह बाद की ही उसके निकाह की कोई
तारीख तय होनी थी।
इस बीच गुलबानो और
आमिर के घर के टेलिफ़ोन बिल कुछ बढ़ गये थे। बढ़ते क्यों नहीं… जब-तब
वे फ़ोन पर
गुटुर-गूँ
किया करते थे। दोस्त-सखी पूछने लगे थे- कहाँ गायब रहते हो.. आजकल नज़र नहीं आते..?
एक सुबह। अंदाज़न
क़रीब ग्यारह-साढ़े
ग्यारह का वक़्त था, और आमिर जा तो रहा था
अपने होम्योपैथिक
डॉक्टर के पास दवा लेने। पर
उसे लग
रहा था
वह गुलबानो
के पीछे-पीछे चल रहा है। गुलबानो
सड़क पर नहीं, आमिर
के ज़हनी बाग़ीचे में टहल रही थी। बाग़ीचे में खड़ी लाल गुलाबों की क़तारों को हवा
झूलों का झाँसा दे… असल
में ख़ुशबू की लूटमार कर रही थी। लूटी हुई ख़ुशबू को दरिया दिली से पूरे शहर में
मुफ़्त लुटाकर शोहरत हासिल कर रही थी। ख़ुशबू के झोंकों से गुलबानो की कमर जैसी
पुरानी दिल्ली की पतली और बलखाती गलियाँ भी अछूती न रह पा रही थीं।
जब नाज़ुक-नाज़ुक क़दमों से
टहलती गुलबानो का
पीला सलवार-कमीज लाल गुलाबों की
क़तारों से रगड़ खाता। गुलाबों की
पँखुड़ियाँ झड़कर ख़ुशी-ख़ुशी उसकी
जामुनी जूतियों तले बिछ जाती, जैसे
उनकी ज़न्नत वहीं थी। कढ़े हुए लाल, हरे, पीले
और सफ़ेद फूलों से भरा जामुनी दुपट्टा फरफरते हुए आमिर के नथुनों, पलकों
को छू रहा था।
उस क्षण वह दुनिया की हर ख़बर
से बेख़बर चल रहा था। उसे नहीं
मालूम
था उसे यों चलते
हुए कोई देख भी
रहा था, या
फिर घात लगाकर उसका
पीछा ही कर रहा था। इश्क़ में डूबे हुए... दुनियादारी में डूबे हुए.. व्यवस्था के
घाघों को कहाँ देख पाते हैं। शायद इसिलिए..दोनों एक दुनिया में होकर भी अलग-अलग
दुनिया में होते हैं।
जब कुछ दूर से
उसके पीछे-पीछे धीरे-धीरे गुड़कती सफ़ेद जिप्सी उसके बराबरी से
आकर रुकी…तब
भी उसे कहाँ भान था कि जिप्सी उसके लिए रुकी..? वह तो जामुनी दुपट्टे की
फड़फड़ाहट को नथुनों, पलकों
पर मसूस करता आगे बढ़ रहा था।
लेकिन जब जिप्सी के रुकने के
अँदाज़ ने
उसके ख्याल में खलल डाला.., तब
वह चौंक उठा। उसने ख़ुद को सड़क पर पाया। यह भी याद आया
कि डॉक्टर के पास दवा लेने जा रहा है। यह शायद उसे ध्यान न रहा कि रमजान चचा की
दुकान पार हो गया है या नहीं। उसने इधर-उधर देखा ‘वह किस जगह है’ यह
अनुमान लगाने की कोशिश की।
जिप्सी में बैठे हुए अपरिचित शरीर उसे घूरते हुए उतरे और
दबोच लिया था। घबराहट ने आवाज़ का गला घोंट दिया था।
अपरिचित शरीरों ने उसकी पेंट को कमर के
पास
से हाथ डालकर पकड़ा और
जिप्सी में पीछे
से पटक
लिया था, जैसे सूअर पालने वाले
सूअर को उठाकर गाड़ी में पटक लेते
हैं। वह क्या करे.. चीख़े…चिचियाएँ… कुछ समझ नहीं
आ रहा था
और जिप्सी अपनी राह फर्राट
भाग चली थी।
अपरिचित शरीरों का भी एक परिचय था, पर
उस वक़्त उन्होंने छुपा रखा था। फिर उन्होंने
आमिर के चेहरे
को भी एक काली थैली से छुपा दिया था। वह
थैली थी कुछ ऎसी…जैसे
फ़ाँसी पर
चढ़ाये जाने वाले को पहनायी जाती है। जिप्सी में उसे अपरिचित शरीरों
ने अपने पैरों तले
दबा रखा था। उसके मुँह से लेकर कान तक के हिस्से पर रखा था एक मजबूत पैर और दूसरा
गर्दन पर।… उसका
शेष शरीर दबा था बाक़ी पैरों के नीचे। अपरिचित पैरों के नीचे उसके भीतर दहशत इतनी
शिद्दत से उभरी कि उसकी पेशाब मूत्र नली को जख़्मी करती हुई बाहर निकली थी- जैसे
किडनी के भीतर का पत्थर बग़ैर गले ही बाहर निकला हो।
आमिर को लगा- यह ज़िन्दगी का
आख़िरी दिन है। उसकी
आँखों के
भीतर असद खाँ, ख़दीजा, शहनाज, दूल्हा
भाई और
गुलबानों के चेहरे घूमने लगे।
लगा- अब किसी से नहीं मिल सकेगा..!
शायद अपहरण
हो गया है. ! पर
मेरे अपहरण से किसी
को क्या मिलेगा..? मेरे
वालदैन के पास फिरौती में देने को क्या है…? शायद अपहरण कर्ता किसी
ग़लतफहमी के शिकार हो गये हैं, वर्ना मुझे क्यों उठाते भला
! जब जानेंगे कि मैं मामूली खिलोने वाले की औलाद हूँ…. तो
शायद छोड़ देंगे। पर वो जाने कब जानेंगे…. क्यों न मैं ही बता दूँ..!
पर कैसे ..? मुँह
तो उनके जूतों के नीचे दबा…, ज़रा-सी
सिहरन भी होती है.. तो मसल देते हैं।
यह जानते और
सोचते हुए भी
आमिर ने चीख़ने की कोशिश की, पर
कोशिश
चीख़ सहित जूतों के नीचे ही दबी रह
गयी। उसकी घीघी कुछ
इस तरह बन्धी कि
लगा अब
कभी चीख़
न सकेगा..!
कभी न चीख़ सकने के ख़याल ने उसे फिरसे चीख़ने को उकसाया। बाहर चीख़ का ‘च’ भी न
निकल सका, पर
भीतर चीख़ इस तरह गूँजी कि कुछ देर तक मस्तिष्क सुन्न पड़ गया।
जल्द ही उसे वहाँ
लाया जा चुका था.. जहाँ लाने को ही उठाया गया था। न उसे लाने
वालों
का नाम पता। न उस
जगह के बारे में कुछ जानता। न ही मालूम कि क्यों लाया गया था..?
जब थैली से बाहर उसका सिर निकाला
गया…। वह
भय के दलदल में धँस गया।
उसने छोटी-सी ज़िन्दगी में पहली
बार देखे
थे, ऎसे भद्दे और
अमानवीय अपरिचित चेहरों
को हँसते हुए। देखा
तो नहीं था उसने कभी मक़्तल
भी, पर
ख़ून, गुटके
और पान की पीक के छींटों से पटी वह कमरे नुमा जगह, उसे मक़्तल-सी ही लग रही थी।
छत में एक पंखा लगा और एक पंखा लगने के हुक में सूत की मजबूत लम्बी रस्सी बन्धी
झूलती हुई। एक कोने में तेल पिये हुए पीले-साँवले बेंत के डन्डे खड़े हुए। जैसे
डन्डों की आँखें थीं और उसे घूर रही थीं। होंठ ही नहीं…,भीतर
ख़ून-पानी भी सूखता मालूम पड़ने लगा। अपहरण कर्ताओं की आपसी बातचीत से ही आमिर ने
जाना- कि वे फिरोती माँगने वाले टुच्चे अपहरण कर्ता नहीं हैं…., बल्कि
सरकारी ख़र्चे पर पलने वाले पुलिस या ऎसे ही किसी रक्षक दल के हैं, जिनके
कंधों पर सुरक्षा का भार है।
आमिर ने मन ही मन ख़ुद से पूछा-
पर मुझसे किसी
को क्या ख़तरा…?
जवाब में उसके
गाल
पर पहला झन्नातेदार रशीद हुआ…और एक रक्षक ने
पूछा- क्यों
बे.. क्या नाम है भेण चो….?
आमिर को अपना नाम याद नहीं
आया। लगा- थप्पड़ पड़ने से नाम दिमाग़ से कहीं बाहर छिटक गया। कुछ देर नाम याद न
आने के एवज में दूसरे तरफ़ ऎन कान पर मुग्दल की तरह एक हाथ और पड़ा….।
नसों में बहता ख़ून रास्ता भटक गया। ख़ून का रेला आमिर के कान से बहने लगा। ताज़े
और गर्म ख़ून का वह पतला-सा रेला यूँ लगने लगा- जैसे रक्षक के हाथ की ताक़त का बखान
कर रहा हो। फिर यों ही आमिर प्रश्न और मुग्दल की बरसात में भीगता रहा कुछ देर।
उसके कान में
साँय…साँय… गूँजने लगा।
यह पूछताछ की साधारण प्रक्रिया की
शुरुआत थी….जो
रात के
घीरते-घीरते अति साधारण
होती गयी। आमिर के मुँह और मल द्वार से एक समान बरताव किया जाने
लगा। उसे दोनों ही द्वार से शराब, पेट्रोल और मिर्ची का
नाश्ता करवाया गया। लोकताँत्रिक महान देश में पूछताछ का इससे सहज-शालीन तरीक़ा और
कोई क्या हो सकता था..! आज़ादी के तिरसठ सालों में विकसित किया था वह नायाब तरीक़ा।
वह
अपनत्व और आत्मीयता से इतना लबरेज था कि मुर्दे तो मुर्दे, भूत-पिसाच
भी हँस-हँस के सारे राज़ उगलने लगे…, फिर आमिर तो जीवित इंसान था
भला….कैसे
न क़ुबूल करता ...? आमिर
ने वह सब कुछ सहर्ष क़ुबूल किया.. जो रक्षकों ने चाहा.. जो उन्होंने पूछा था। उसने
सीखा- अपराध क़ुबूल करने के लिए अपराध करना ज़रूरी नहीं होता।
इधर असद और ख़दीजा को तीन दिन तक
तो पता ही
नहीं चला कि
आमिर बग़ैर
बताये कहाँ चला गया।
उन्होंने पहली रात सोचा-
गुलबानो
के यहाँ पतंग उड़ाने चला गया होगा। गुलबानो और
आमिर दोनों को
पतंगबाजी का बहुत शौक़ था। शहनाज के
निकाह
में काम की
व्यस्तता थी, तब
भी एक बार दोनों पतंग लेकर छत पर चढ़ गये थे। शायद पतंगबाजी के दौरान ही दोनों की
नज़रें और फिर धागन उलझी थीं.. जो बाद में पूरे समय उलझती-उलझती निकाह की बातचीत तक
पहुँची थी।
जब उस रात नौ-साढ़े नौ
तक भी आमिर नहीं लौटा तो…असद
खाँ ने
गुलबानो के
वालिद सुल्तान खाँ से फ़ोन पर पूछा। सुल्तान खाँ ने बताया- आमिर यहाँ तो नहीं आया…। और
चिंतित स्वर में पूछा- सब ख़ैरियत तो है़…?
अब चिंता ने
दोनों
ही परिवारों को अपनी आगोश में लेना
शुरू कर दिया था। असद खाँ और
ख़दीजा ने ख़ूब सोचा- आमिर कहाँ जा सकता है। कहीं ऎसा तो
नहीं, फिर
से अचानक पत्थरी का दर्द उभर आया हो। किसी ने अस्पताल में पहुँचा दिया हो। असद खाँ
ने होम्योपैथिक डॉक्टर से, रमजान
मियाँ से और जिन-जिन को जानता उनसे पूछा। पर किसी से कोई ख़बर हाथ न लगी। और कोई
नाम भी याद नहीं आ रहा था
जिससे पूछे या जहाँ आमिर बग़ैर बताये जा सकता
था। अड़ोसी-पड़ोसी भी कब तक बैठते पास..! आख़िर उन्हें भी तो दाल-रोटी की जुगाड़
में जाना था सुबह। पड़ोसन रमा सिंह देर रात तक बैठी रही और फिर वह भी चली गयी थी।
थके-हारे असद खाँ और ख़दीजा परेशानी का दामन थामे बैठे रहे रातभर। एक-दूसरे की
सिसकियाँ ही एक-दूसरे को ढाँढस देती रही। वह कलमुँही रात जैसे-तैसे कटी। कहने को
सुबह हुई पर उसमें भी कुछ नहीं सूझा साफ़-साफ़। किससे पूछे….? कहाँ
खोजे..?
दूसरी रात, दूसरा दिन भी ऎसे ही बीते।
अख़बार आता.. तो बेसब्री से हेडिंग पढ़ते। पन्ने पलटते…शायद
कोई ख़बर आमिर का पता दे दे…! पर अख़बार भी तभी दे...जब
कोई उन्हें दे ख़बर।
तीसरी रात ख़दीजा को बुखार ने
घेर लिया। नींद
में जब-तब
मेरा आमिर…
मेरा राम.. बुदबुदाती चौंक कर उठ बैठती। कहती-
उसने दरवाज़ा खटखटाया। आमिर के अब्बू… दरवाज़ा खोलो…।
तीसरी सुबह अख़बार के पहले पेज पर
आमिर की तस्वीर देख असद खाँ के पैरों नीचे जैसे ज़मीन फट पड़ी। वह अख़बार उठाने को
झुका तो खड़े होने की बजाए धप्प से कूल्हों के बल गिर पड़ा। असद खाँ ने काँपते हाथ, घबराए
जी के साथ फटी आँखों से हेड लाइन पढ़ी- सिलसिलेवार बम धमाके करने वाले पुलिस की
गिरफ्त में। वह कुछ देर तो हेड लाइन और आमिर की तस्वीर में कोई सम्बन्ध ही न बना
पाया। धमाकों से आमिर का क्या लेना-देना..? फिर इस हेड लाइन के साथ
उसकी तस्वीर क्यों..?
ख़दीजा दूध की
थैली लेकर लौटी और असद की
हालत देखी.. तो पाँव में धूजनी भरने
लगी। वह असद खाँ के
काँधे को
पकड़ हिलाती पूछने लगी- क्या छपा है…? राम की कोई ख़बर है…?
जब असद खाँ ने
पूरी ख़बर पढ़ी... और एक और किसी मोहम्मद फ़हीम की छपी तस्वीर
देखी, उसे समझ में नहीं
आ रहा था
कि वे कैसे ख़ुद को, ख़दीजा को
यक़ीन दिलाये कि आमिर ने ऎसा किया होगा…या नहीं..?
पर वह क्या करता…? उसके
बस में था क्या..जो करता..? जान-पहचान
के जिन लोगों को फ़ोन किया…।
मदद माँगी। उनका टके-सा जवाब- बीमारी-सिमारी हो तो कुछ मदद कर दे..। आमिर को जब
अस्पताल ले जाना पड़ा था, जिससे
जो बना मदद की भी थी।
पर ऎसे मामले में क्या कर सकते हैं …..? ऎसे
में तो जो करे, वो
भी मरे।
मुहल्ले के लोग आपस में कहते-सुनते-
आज कल के बच्चों के मन की कौन जाने..? हो
सकता है… आमिर
ने किया ही हो..! वो दूसरा लड़का मोहम्मद फ़हीम… वो
तो पाकिस्तानी ही है….शक्ल
से ही आतंकवादी लगता है…।
जब आमिर और मोहम्मद फ़हीम
को कोर्ट में पेश किया
गया था।
उन्हें देखने को उमड़ी भीड़ की आँखों में रोमांच था। जैसे वे आतंकवादी नहीं, सुपर
स्टॉर
हो। पर भीड़ को निराशा हाथ लगी। क्योंकि उनके चेहरे न
आतंकवादी की तरह ख़ौफ़नाक थे और न सुपर स्टॉर जैसे मनमोहक। वह आम युवकों जैसे
चेहरे-मोहरे के ही थे.. अब आम चेहरों को देखने में भीड़ को कैसे मज़ा आता भला..?
हालाँकि प्रकरण की जाँच हो चुकी थी। फिर भी
पुलिस ने
कुछ दिन का
रिमांड माँग लिया। उन
दिनों
मोबाइल लाँच हुआ ही हुआ था, पर
अभी आमिर
जैसों की
हैसियत वालों तक
नहीं आया
था। आमिर
के घर में लैन्ड लाइन
फ़ोन ही
था, जिसकी कॉल डिटेल पुलिस
ने निकाली ली थी। अब रिमाँड के नाम पर उन लोगों के बारे में जानकारी ली जाती, जिनसे
फ़ोन पर बात हुई होती। उनकी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हैसियत
जानी-समझी जाती…. चाहे
वह रिश्तेदार हो, दोस्त
हो या खिलौने वाला कोई ग्रहाक। अगर उसकी माली हैसियत अच्छी होती। पुलिस उन्हें
अलग-अलग दिन, अलग-अलग
वक़्त पर बुलाती। कहती- धमाकों में तुमने आमिर की बड़ी मदद की है। लोग घबरा जाते।
आमिर को बददुआ देते। उन्हें समझ नहीं आता.. आमिर उन्हें क्यों फँसाना चाह रहा…?
पुलिस ने सुल्तान खाँ को
भी पूछताछ को बुला लिया, क्योंकि सबसे
ज्यादा फ़ोन उन्हीं के नम्बर से आता था और जाता भी उन्हीं के नम्बर पर। पुलिस तो
गुलबानो से भी पूछताछ करना चाहती थी, लेकिन सुल्तान खाँ ने
जैसे-तैसे दे-दुआ कर इज़्ज़त बचायी थी। गुलबानो के पास कोई चारा न था कि वह आमिर को
न कोसे। पुलिस जिस पर भी आमिर के हवाले से मदद का आरोप लगाती। वह बापड़ा पुलिस को
ले-देकर अपनी जान की भीख माँगने लगता।
लोगों के मन में आमिर के प्रति नफ़रत
पैदा होने लगी
और पुलिस को बड़ी दयालु समझी
जाने लगी। लगता- आमिर ने ज़रूर कुछ किया ही होगा…वर्ना
पुलिस की
उससे क्या दुश्मनी
जो उसे पकड़ा..? वह
घुन्ना शातिर
तो पहले से ही नज़र आता था। बोलता भी कितना कम था। वह मन ही
मन जाने क्य-क्या साज़िशें रचता रहा होगा था।
रिमाँड का वक़्त पुरा होने तक पुलिस ने
यूँ ही
उगाही की
थी। फिर आमिर
और फ़हीम को कोर्ट में पेश कर
दिया…।
पुलिस ने
आरोप-पत्र पेश किया। आरोप-पत्र
में
पुलिस ने दावा किया- आमिर
पाकिस्तान लश्करे-तैयबा के शिविर में प्रशिक्षण लेने गया था। पुलिस ने अपनी जाँच
में आमिर का पाकिस्तान जाना। वहाँ वीजा अवधि समाप्त होने पर, फिर
से बढ़वाना, ताकि
प्रशिक्षण लेता रहे। .. आदि बातों का उल्लेख किया। हालाँकि वीजा अवधि बढ़वाने की
वजह पिलिया होना बतायी थी। पर सही वजह बता कर कौन वीजा बढ़वाता है..?
जाँच फ़हीम की भी ऎसे ही
सख़्त नज़रिए से
हुई
थी। कहने
को तो फ़हीम अपने ताऊ के
यहाँ मेहमान आया
था। लेकिन जाँच
अधिकारी
ने ऎसा कुछ नहीं
पाया था।
अधिकारी के मुताबिक़ फ़हीम
लश्करे-तैयाबा के खुफ़िया मिशन पर आया था। खुफ़िया मिशन को आमिर और फ़हीम मिलकर अंजाम
देने वाले थे। खुफ़िया मिशन क्या था…. ? जाँच अधिकारी ने यह जानने
की बहुत कोशिश की थी। लेकिन आतंकी अपने संगठन के प्रति बहुत वफ़ादार होते हैं। कभी
संगठन के ख़िलाफ़ मुँह नहीं खोलते हैं। उन्होंने भी नहीं खोला था। फिर भी जाँच
अधिकारी ने जैसे-तैसे जो कुछ जाना था, उसी के आधार पर चालान पेश
किया था। चालान के आधार पर ही कोर्ट ने उन्हें जेल भेज दिया था।
आमिर का घर एक तंग गली में था। वैसे
उस एरिया
में ज्यादातर
गलियाँ तंग
ही थी। जैसे वे गलियाँ नहीं
राजधानी की
नसें हों, उनमें
ब्लॉकेज आ जाये तो राजधानी का हार्डफेल होने में भी देर न लगे। मगर राजधानी को
मुगालता था कि उसकी धड़कन तो राजमार्ग, जनपथ मार्ग, अक़बर
रोड
और रेसकोर्स रोड जैसे मार्गों की हलचल से चलती है। उस गली
में आमिर के परिवार को कभी अकेलापन महसूस नहीं हुआ था। भीड़-भाड़ और अपनत्व से लबरेज
थी वह गली। किसी के साथ कुछ भी होता… तो पूरी की पूरी उमड़
पड़ती। आमिर जब बीमार हुआ, सबने
मदद की थी। शहनाज के निकाह में पूरे मुहल्ले ने दौड़-भाग की थी।
लेकिन जब से आमिर की तस्वीर फ्रन्ट पेज पर
छपी, जैसे
असद खाँ और
ख़दीजा को पहचानती नहीं
थी गली। फिर गली भी क्या करती..? पुलिस ने जाँच के नाम पर
आमिर और उसके परिवार के क़रीबियों को ऎसा तला था कि गली के आस-पास की कबाब
बनाने-बेचने वाले भी शर्मिन्दगी से भर गये थे। फिर हालत यह हो गयी कि कोई
असद खाँ की बग़ल में खड़ा होने का भी साहस न करता। मन के घर में डर का शंख गूँजता।
जाने कब पुलिस धर-दबोचे। अपना लेना न देना, जबरन बाल-बच्चों और
रोजी-रोटी से दूर क्यों होना..? लोगों का मानना था कि
आतंकवादी का सहयोगी या आतंकवादी कहलाने से अच्छा है भूख के दरिया में डूब मरना।
कुछ ही दिन में न्याय के
मन्दिर के पट खुले। घन्टियाँ बजी। मुकदमा शुरू हुआ। फ़हीम का तो न यहाँ से और न
उसके वतन से कोई समाचार लेने आया, न किसी ने उससे अपना कोई
रिश्ता उजागर किया। एक ताऊ ही थे यहाँ, जिन्होंने उसे पहचानने से
इंकार कर दिया। पुलिस की जाँच में ताऊ का इंकार बहुत सहायक हुआ।
लेकिन असद खाँ ने अपनी हैसियत के मुताबिक़ एक
वकील किया। आमिर की बेगुनाही साबित करना शेष जीवन का लक्ष्य बनाया। घर और कोर्ट के
बीच चक्कर शुरू हुए। कभी पन्द्रह दिन में एक बार… कभी महीने में एक बार।
परिस्थिति कैसी भी हो..। जेब में रुपया हो न हो..। शबनम की या ख़ुद की तबीयत ठीक
हो, न
हो। जब तारीख हो… जाना
तो होता ही। शुरू-शुरू में ख़दीजा को भी ले जाता। दोनों करते तो क्या वहाँ.. पेशी
पर आये बेटे का मुँह देख आते..। वकील को फ़ीस दे आते। वकील जो कहता सुन आते। मन में
दिलाशा रखते। अल्लाह सब ठीक करेगा। रोज पाँचों वक़्त नमाज में एक ही दुआ करते-
अल्लाह आमिर और फ़हीम की रक्षा करना। उसे कभी यह ख़याल ही न आया कि अल्लाह रक्षा
करता.. तो सलाखों के पीछे जाने ही क्यों देता..?
जब आमिर इस लफड़े में नहीं
उलझा था.. तब असद खाँ खिलोनों के
कारोबार में बहुत
उलझा हुआ था। कभी यारी-दोस्ती
में, रिश्तेदारी
में किसी का निकाह होता.. किसी के बच्चे का जन्म दिन होता.. किसी का चालीसवाँ होता
या बरसी होती। असद खाँ को हर हफ़्ते कई निमंत्रण होते थे, पर
उसका आना-जाना न हो पाता था। लेकिन जब आमिर कारोबार में हाथ बँटाने लगा था.. तो
जहाँ जाना बहुत ज़रूरी होता.. वहाँ असद खाँ हो आता था।
जब से कोर्ट का
सिलसिला शुरू
हुआ…. कारोबार में समय नहीं
दे पाता।
फिर जहाँ
खिलोनों की
दुकान
और गोडाऊन था, वह जगह किराये
की थी। आमिर
के पकड़े जाने
के बाद हुई बदनामी
की वजह
से दुकान ख़ाली करनी
पड़ी।
कोई नये सिरे
से दुकान
या गोडाऊन किराये पर देने को राजी न हुआ। वह कहीं भी
जाता, तो
दुकान या गोडाऊन का मालिक कहता- मियाँ तुम्हारा क्या भरोसा…. जाने
कब हमारे गोडाऊन को ही उड़ा दो..।
असद खाँ के पास दूसरा कोई चारा
न था
सिवा इसके, कि
अपने घर में आमिर
के कमरे को गोडाऊन बना ले। उसने
आमिर के कमरे में ठूस-ठूस कर
खिलोने भर दिए। बचे हुए अपनी खटिया के नीचे और घर में जहाँ थोड़ी खाली जगह दिखी
वहाँ जमा दिए। नया माल बनवाना बन्द कर दिया। कच्चा माल घर की छत पर मोमपप्पड़ से
ढँक कर रख दिया। महीने दर महीने बीतने लगे। न कहीं से खिलोनों का आर्डर आता, न
कोई उस सम्बन्ध में बात करता। ख़ुद असद खाँ ने अपनी तरफ़ से फ़ोन लगा कुछ दुकानदारों
से पूछा। कोई इधर-उधर की बात करता और मूल बात को टाल देता। कोई साफ़गोई से कह देता-
खाँ साहब… जिस
दिन से अख़बार में आपके शहजादे के बारे में पढ़ा….। सच कहूँ…मेरी
तो फटती है…कहीं
खिलौनों में से बम निकलने लगे तो…!
असद खाँ ने खिलौना बनाने वाले
कारीगरों का हिसाब कर
दिया। खिलोनों को
आधे दाम पर
लेने को भी कोई तैयार नहीं
हुआ। असद
खाँ और
ख़दीजा ने अपनी गली
से बाहर आ थोड़ी चौड़ी सड़क
किनारे ठेला लगाया। सोचा- तैयार खिलोनों को
औने-पौने दाम पर
बेच दें, पर
खिलोनों
को कोई
पूछता भी नहीं।
पड़ोसन रमा सिंह
ही थी जिसकी दोनों लड़किया-
सलोनी और
शर्मिली। ख़दीजा के घर में खिलोनों के
लालच में अक्सर आ जाती। खेलती रहती। ख़दीजा
और असद खाँ कुछ नहीं
बोलते, बल्कि उन्हें
अपने हाथों
से खिलोने मुफ़्त में दे
दिया करते। पर
सलोनी और
शर्मिली भी
कितने खिलोनों से खेलती। अंततः वे खिलौने भी कच्चे माल के पास छत पर रख दिये। साल
दर साल मौसम की मार से कच्चा माल और खिलोने नष्ट होते रहे।
असल में ख़दीजा और असद खाँ ने
अपने बुरे दिनों की
परछाई को
भाँप लिया था। ख़ुद
को परिस्थिति
और अल्लाह की मर्ज़ी के हवाले छोड़
दिया था। भरोसा था कि अल्लाह एक दिन सब ठीक कर देगा। उसके यहाँ देर है अंधेर नहीं।
उसके इस भरोसे की जड़ भावुक आस्था में गड़ी थी। अगर वह जानता होता कि भावुक आस्था
समझ को कुन्द और आँख को अँधी बना देती है, तो अंधविश्वास की जड़ कभी
की हिल गयी होती।
समय अपनी चाल चलता रहा और कोर्ट
अपनी। दोनों की चाल में कोई साम्य नहीं था। साल दर साल बीतने लगे। मुकदमा चलता
रहा। वकील आसवासन देता.. बस.. उम्मीद थी जल्दी ही फ़ैसला आ जायेगा। अल्लाह के फ़ज़्ल
से माथे का कलंक मिट जायेगा…. फिर सब कुछ पहले जैसा हो
जायेगा।
आमिर का साथी आरोपी मोहम्मद फ़हीम
उर्दू साहित्य में एम.ए कर रहा था। आमिर की मुलाक़ात उससे कराची में एक जलसे में
हुई थी। आमिर पुरानी दिल्ली से है जानकर फ़हीम ख़ुश हुआ था, क्योंकि
पुरानी दिल्ली में तो फ़हीम के ताऊ का परिवार भी रहता था। उसने कहा था- मैं वहाँ
आऊँगा।
आमिर ने कहा था-
आओ तो मुझे ज़रूर फ़ोन करना… मैं
तुम्हें अपना घर दिखाऊँगा..। अपने अम्मी-आब्बू से मिलवाऊँगा…।
रमजान चचा के यहाँ पराठे खिलाऊँगा…. फिर …गुल
के घर भी ले चलूँगा…।
पाकिस्तान से वापसी के
बाद भी
दोनों
में फ़ोन पर
बातचीत हुआ
करती। तब दोनों को
कहाँ पता था
फ़ोन की
कॉल डिटेल
निकलेगी और जी का जँजाल बनेगी, और तब फ़हीम भी दिल्ली में
ही होगा।
जिस दिन दिल्ली पहुँचा था, उसके
एक दिन
पहले ही आमिर को उठाया गया था। कॉल डिटेल के
आधार पर फ़हीम के बारे में पूछा
गया था। आमिर
से पूछताछ में ही
पता चला-
फ़हीम भी दिल्ली आ रहा है…।
आमिर ने पुलिस
से कहा- फ़हीम उसका सामान्य दोस्त है…. न उसका और न मेरा किसी
आतंकी संगठन से कुछ लेना-देना है। फ़हीम मुझसे मिलने नहीं… अपने
रिश्तेदार के यहाँ आ रहा है।
उन दिनों फ़हीम
ने नया-नया मोबाइल
ख़रीदा था। आमिर
के पास उसके
मोबाइल नम्बर थे। पुलिस ने
फ़हीम के मोबाइल पर कॉल किया….। फ़हीम ने फ़ोन उठाया। आमिर
से बात करने को कहा। आमिर ने वह बात की जो पुलिस ने चाही। मसलन उसकी लोकेशन क्या
है.. कपड़े कैसे पहने है आदि..।
फिर पुलिस ने आमिर से कहा- उसे कहो कि
जहाँ खड़ा है वहीं खड़ा रहे… तुम अपने
अंकल के साथ लेने
पहुँच रहे हो…।
मार के आगे तो भूत भी
नाचता है
फिर
आमिर क्या चीज़ था। जैसा
कहा, वैसा
ही उसने बोला-
फ़हीम वहीं खड़ा रहा कुछ देर..। मैं तुझे
अपने अंकल के साथ
लेने आ रहा हूँ।
पुलिस ने आमिर को जिप्सी में बैठाया
और फ़हीम को लेने चल पड़ी। वह
एक कबाब की दुकान के
सामने पी.सी.ओ. के
पास खड़ा था। जिसे आमिर ने पहचान तो लिया था, पर वह पुलिस के पूछने पर भी
चुप था। सोच रहा था- कहीं उस पर भी बम ब्लॉस्ट का आरोप न लगा दे।
पुलिस ने आमिर को आश्वासन दिया
था- अगर
फ़हीम से पूछताछ में पता चला कि
तू बेगुनाह है..
तो तुझे छोड़ देंगे। वह भीतर ही भीतर बुदबुदाया-पुलिस छोड़ भी सकती है.. नहीं भी
छोड़ सकती। क्या करूँ..? फ़हीम
को पहचानू या न पहचानू..?
पुलिस ने आमिर की द्विविधा को भाँप लिया। फिर पुलिस ने
आमिर के पैर
के अंगूठे को जूते से दबाया। आमिर के पैर का
नाखुन पहले
ही प्लायर से खिंचा जा
चुका था। ऎसे में
दर्द की कोई सीमा न थी..। उसने तुरंत फ़हीम की ओर इशारा किया।
पुलिस वाले सादी ड्रेस में ही
थे…और हुलिए से
पुलिस कम..
गुन्डे ही ज्याद लगते
थे। आमिर
के हाथ को
हथकड़ी और जिप्सी की सीट से
बान्ध रखा था। फिर भी
एक आदमी उसके पास
रुका और दो उतर कर फ़हीम को लाने चले गये।
दोनों फ़हीम के एक-एक बाजू खड़े हो गये। एक ने
बताया- आमिर जिप्सी में
पीछे बैठा है.. उसके पैर में चोट लगी है..इसलिए गाड़ी से
नहीं उतरा.. चलिए.. एक ने उसका बैग ले लिया, जैसे
मेहमान नवाजी की
जा रही हो। फ़हीम
ने जिप्सी की ओर देखा- जिप्सी पर न नम्बर थे
और न
कुछ ऎसा लिखा था, जिससे
वह यह पहचान लेता कि जिप्सी पुलिस की है।
जिप्सी के भीतर से आमिर ने हाथ का
इशारा किया। फ़हीम
ख़ुश होता हुआ जिप्सी
में चढ़ गया।
पीछे से दोनों पुलिस वाले
भी चढ़ गये।
जिप्सी अपने ठिये की ओर दौड़ने लगी। थोड़ी देर तक
तो फ़हीम को कुछ समझ में
न आया..पर दो-चार मिनीट तक जब आमिर कुछ बोला नहीं, और उसका हाथ नीचे हथकड़ी से
सीट में बन्धा नज़र आया… तो
फ़हीम को दाल काली लगी। पर देर हो चुकी थी। अब कुछ न किया जा
सकता था। फ़हीम को समझ में आ गया था कि वह किसी लम्बे खेल में फँस गया है। वह
निढ़ाल हो गया।
फिर पुलिस ने फ़हीम की भी जी
भरकर खातिरदारी की। जब दोनों मिट्ठू की तरह वही दोहराने लगे, जो
पुलिस कहती। और जब दोनों ने कौल दिया कि हर जगह वही-वही दोहराएँगे। तभी पुलिस ने
प्रेस को बताया- कि सिलसिलेवार विस्फोटों के आरोपियों को धर-दबोचा है।
यह ख़बर दिल्ली से कराँची तक
पेट्रोल की आग की तरह फैली। कई अख़बारों की फ्रन्ट स्टोरी और कई चैनलों की
ब्रेकिंग न्यूज बनी। चाय-पान की गुमटियों, बीयर बारों, अहातों, थानों, कचहरियों, विधान
सभाओं, संसद
और बेडरूम तक की गपशप बनी। अब जिसे जो करना हो- आश्चर्य, दुख, घृणा
या फ़क्र करे। पुलिस या देश के रक्षकों को जो करना था.. कर चुके थे…।
आमिर और फ़हीम का अब जो भी होगा- न्याय के मन्दिर में होगा।
बहरहाल दोनों को
जेल की
अलग-अलग
कोठरी में बन्द
कर दिया था। दोनों में आपसी
संवाद
की हर गुंजाइश ख़त्म थी। जब
कोर्ट में पेशी
का सिलसिला
शुरू हुआ.. तो ज़रूर उन्हें एक गाड़ी से लाया
जाता। शुरू-शुरू में गाड़ी में अक्सर एक–दूसरे के बीच कहा-सुनी और
झड़प हो जाती। फ़हीम को लगता- आमिर की वजह से पकड़ा गया। वरना वह तो अपने ताऊ के
यहाँ आया था.. उसका विस्फोट वगैरह से कोई लेना-देना नहीं था।
आमिर कहता- काश पाकिस्तान न गया होता।
तुझसे दोस्ती न हुई होती। फ़ोन पर दुआ-सलाम न हुआ करती.. तो शायद न फँसता।
आख़िर दोनों आपस में कब
तक लड़ते-झगड़ते।
समय के
साथ धीरे-धीरे
दोनों
समझ गये कि
वे न फँसते तो
कोई और
फँसते। उनका नाम
फिर शाहरूख-सलमान होता। सलीम-जावेद होता
या कुछ
भी होता। विस्फोट हुए
थे तो पुलिस की मजबूरी थी किसी न किसी को आरोपी बनाना। फिर शरीफ़ इंसान हो तो… आरोप
क़ुबूल कराने में आसानी हो जाती है।
एक कहावत है-
थाना और कचहरी का
मुँह काला होता है। इसका
अर्थ असद
खाँ और
ख़दीजा को तब समझ
में आने लगा, जब
मुकदमे की शुरुआत हुई। सबसे पहले खिलोनों का धंधा चौपट हुआ। फिर दूध, अख़बार, इत्र
और फ़ोन के ख़र्चे कम किये। एक-एक कर घर का सामान बिकने लगा। कपड़ों में पैबन्द
लगने लगे। जूते बेशर्मी से मुँह फाड़ने लगे। अन्ततः घर भी जाता रहा। घर ख़रीदने
वाला असद खाँ का पुराना परिचित और भला आदमी था। उसने असद खाँ की गुज़ारिश मान ली कि
आमिर के मुकदमें का निर्णय आने तक घर के एक कमरे में रह सकते हैं। एकदम निःशुल्क।
असद खाँ को यह बड़ा उपकार लगा। ख़ुदा के आगे रोज़ पाँच बार झुकने वाले असद खाँ पहली
बार इंसान के आगे झुके और आभार माना। मुकदमे का फ़ैसला जो भी हो.. फ़ैसला आते ही घर
खाली करना था।
असद खाँ को लग रहा था
कि जल्दी मुकदमें का
कोई हल
निकल आयेगा। पर साल दर
साल सरकते जा
रहे
थे। हल
की कोई सूरत
नज़र
नहीं आ रही थी। वकील
की बातें हिम्मत
बन्धाती, पर
केवल बातों के
दम पर हिम्मत भी कब तक बन्धती। वकील को फ़ीस देने
के लाले पड़ने
लगे। फ़िक्र उसका माँस खा और ख़ून पी रही थी। शरीर इतना
कमज़ोर हो गया कि आइने के सामने खड़ा हो जाये तो ख़ुद की शक्ल न पहचाने। एक दिन
नहीं मालूम उसकी रगों में ख़ून जम गया, या फिर ख़ून ख़त्म हो गया।
अचानक धड़कन बन्द हो गयी। ख़दीजा ने जैसे ही देखा-पुरी गली माथे पर उठा ली। ख़ूब
चीख़ी-चिल्लायी। अपनी छाती पीटी और असद खाँ की छाती पर भी मुक्के मारे। फिर
चीख़ती-चिल्लाते पुरे कमरे में दौड़ती रही। जैसे यमराज का पीछा कर रही हो। पर न
असद खाँ की मौत सत्यवान की मौत थी और न ख़दीजा का विलाप सावित्री का विलाप था, जो
यमराज के पंजो से अपने पति की जान छीन लेती। फिर अचानक जैसे ख़दीजा गूँगी हो गयी।
वह असद खाँ का सिर गोदी में लेकर बैठी की बैठी ही रह गयी।
उसकी चीख़ सुन कर
जो लोग जमा हुए थे, उनके
भीतर आदमियों की
ही आत्मा थी, इसलिए पसीज
उठी थी। लोगों को
लगा- ख़दीजा भी चल बसी है..। लेकिन जब देखा-
ख़दीजा की साँस चल रही है.. पर पलके नहीं झपक रही है…कुछ
बोल नहीं रही है। रमा सिंह अनुनय-विनय करने लगी, तो गली वालों को शर्म आ गयी, उन्होंने
ख़दीजा को अस्पताल में भर्ती करवाया। असद खाँ को सुपुर्द-ए-खाक किया गया।
ख़दीजा के धड़ की
एक बाजू लकवा ग्रस्त हो गयी
थी। वह ज़िन्दा तो थी पर ज़िन्दगी के कोई मानी नहीं थे। अस्पताल का बील रमजान चचा ने
भरा था। रमजान चचा ने ही आमिर से मुलाक़ात कर असद खाँ के इंतकाल की और ख़दीजा की
हालत की ख़बर दी थी। आमिर से मुलाक़ात की तो दो-तीन बार रमजान चचा को भी थाने
बुलाया गया। उनसे भी पूछा कि आमिर से क्या रिश्ता है। लेकिन जब रमजान चचा ने बताया
कि बस… एक
गली-मुहल्ले के होने के नाते…आदमी का आदमी से जो रिश्ता होता है… वही
है, और
कोई रिश्ता नहीं है…
रमजान चचा का जवाब सुन एक
पुलिस वाले
का माथा ठनक उठा-
ओय चचा…. भेजे
की माँ-भेण मत
कर…।
हमको इंसानियत
सिखा रहा…। और
वह हाथ से थाने के एक कोने तरफ़ इशारा करता बोला- जा बैठ उधर… अभी
आदमी से आदमी का रिश्ता कहाँ घुस जाता है.. बताता हूँ..।
उस दिन दोपहर तक
रमजान चचा की
दुकान न खुली। वहाँ
नियमित नाश्ता और खाना खाने वाले चक्कर काटने लगे।
दुकान की
चाबी चचा के
पास थी.. तो नौकर भी बाहर ही खड़े थे। फिर बग़ल वाले नाई ने बताया कि चचा से सुबह
दुआ-सलाम हुई थी। ‘थाने
जाकर आता हूँ’ कहकर
गये थे…शायद
वहीं से नहीं लौटे। होम्यौपेथिक डॉक्टर और दो-तीन और स्थाई ग्राहक थाने पहुँचे।
देखा- रमजान चचा हेडमोहर्रिर के कमरे और हवालात के बीच के गलियारे में आड़े पड़े
हैं। डॉक्टर ने थानेदार से बात की। चचा भला आदमी है सबने मिलकर
भरोसा बन्धाया। चचा की मौखिक जमानत ली। कुछ लेन-देन का व्यवहार हुआ। तब चचा को
लेकर दुकान पर आये। चचा ने उस दिन से कान पकड़ा कि कभी आमिर से मुलाक़ात को नहीं
जायेगा।
ख़दीजा ज़िन्दा थी, पर
पल-पल मौत चाहती हुई।
बेटा जेल में और
पति
क़ब्र में। ऎसे में साँसे भी
बोझ थी
उस पर। काश लकवा
उसके शरीर को अपंग न करता। साँसे ही
छीन लेता, या
रहम
कर चेतना हर लेता। ख़दीजा
के लिए क़ैद और
क़ब्र से बढ़कर
जहन्नुम-सा था अपंग शरीर। खाट पर
पड़ी रहती।
तलब लगने पर पेशाब-पानी को भी जाना हो… तो कूल्हे घसीटते हुए।
भूख-प्यास भी लगती। बदन की साफ़-सफ़ाई भी करनी होती। कपड़े धीरे-धीरे चिथड़ों में
बदल रहे थे… पर
फिर भी धोना तो पड़ते थे। ऎसे बहुत-से काम थे जो ख़दीजा के बस के नहीं थे। न ही
उसके पास कोई आय का जरिया था, कि कोई काम वाली बाई रख
लेती। थी तो वही एक नेक दिल पड़ोसन रमा सिंह।
रमा सिंह पचास के आस-पास की
विधवा। न दुबली, न मोटी। न साँवली, न गोरी। न वाचाल, न घुन्नी। रमासिंह का
पति तो
बहुत पहले ही दुर्घटना में चल
बसा
था। अब
उसकी लड़कियाँ- सलोनी
और शर्मिली भी जवान हो गयी थी। सलोनी
कॉल सेन्टर में और शर्मिली एक बार में काम करने भी लगी थी।
रमा सिंह व ख़दीजा के बीच किस जन्म
का
और क्या रिश्ता था..? यह तो पुलिस, एन.आई.ए.
और सी.बी.आई. जाँच करके ही भेद खोल सकती
थी..। पर रमा सिंह
अपनी माँ
की तरह ख़दीजा की देखभाल करने
लगी थी। ख़दीजा को भी जैसे रमा सिंह के रूप में शहनाज मिल गयी थी। अब रमा सिंह उसी
घर में रहने लगी थी, जिसमें
ख़दीजा एक कमरे में रहती थी। ख़दीजा के कमरे को छोड़, घर
का बाक़ी हिस्सा रमा सिंह ने किराये पर ले लिया था।
ख़दीजा का मुँह टेढ़ा और
आँखें
भेंगी हो गयी थी लकवे के बाद। आवाज़ लगभग चली ही गयी थी, फिर
भी बोलने की कोशिश करती रहती थी। दो-तीन वाक्य बोलने में भी काफ़ी देर लगाती। एक
अक्षर, एक
शब्द भी टुकड़े-टुकड़े में निकलता। अक्षर और शब्द से ज्यादा लार बहती। ऎसे ही एक
दिन ख़दीजा ने कहा- जि..स..ने घ..र ख़..री..दा बड़ा भ..ला आदमी है… अपना
कौ..ल नि..भा रहा…, वर..ना
ऎसी हा..लत में स..ड़क पर क..हाँ कूल्हे घसी..टती..?
ख़दीजा इतनी बात भी
कभी आठ-पन्द्रह दिन में बोलती तो
बोलती। ज्यादातर तो उसका काम इशारे से
ही चलता। रमा सिंह
ने उसके पास एक
थाली सदा के
लिए छोड़
रखी थी कि कभी रमा सिंह इधर-उधर हो, या रात-बेरात अचानक ज़रूरत
हो तो थाली बजा दे। यों ही एक दिन उसने रमा सिंह को बुलाया। रमा सिंह ने आकर देखा-
ख़दीजा की आँखें गीली थी। मुँह से लार बह रही थी। रमा सिंह ने उसकी आँखें और मुँह
पोंछ इशारे से पूछा- कुछ चाहिए। ख़दीजा ने इंकार में गर्दन हिलायी और कहा- बे..टी
तू न होती…तो
मेरी गा..र का क्या होता..? अ..ल्लाह
करे तेरी बे..टियों को राम और ल..क्ष्मण जैसे शोह..र मिले।
ख़दीजा की आँखें फिर भर
आयी। उसके ज़हन में आमिर
और असद खाँ की यादों का
तूफ़ान चल
रहा
था। बेबसी की
आलपीन उसकी
नस-नस में चुभ रही थी। वह भीख माँगती-सी लड़खड़ाती और बिखरती आवाज़ में बोलने लगी-
मु…झे…को..ई…. गो…ली… दे…दे… अ…ल..ला..ह..
क..की ग..गो..द.. में… ल…ल..म..बी….नीं….द…. सो…ज..जा….ऊँ…।
उस दिन रमा सिंह
की जैसे आत्मा
की जड़े हिल गईं थीं।
उसकी दोनों लड़कियाँ
हमेशा की
तरह काम पर गयी हुई थीं। घर के बाहर दुपहरी आग में नहा रही थी। रमा सिंह निकल
पड़ोसन को बुला लायी। ख़दीजा को पानी टोया। पंखा चलने के बावजूद एक कपड़े से थोड़ी
हवा की। पड़ोसन और रमा सिंह ने हिम्मत बन्धाने लगी। पड़ोसन ने कहा- आप परेशान मत
हो… अल्लाह
सब ठीक करेगा।
रमा सिंह ने कहा- मैं हूँ न..। मैं शहनाज… आप
फ़िक्र मत
करो।
कहते ही रमा सिंह
को अचानक याद आया कि
वह अपना नाम भूल गयी।
वह कहना चाहती थी
कि मुझे शहनाज जैसी
ही समझो।
लेकिन भावुकता में ख़ुद
को शहनाज़ ही
कह उठी। ख़दीजा का मन कभी-कभी आमिर से मुलाक़ात का
होता। पर
जेल जाकर मुलाक़ात करना या कोर्ट जाकर वकील से मिलने जैसा साहस रमा सिंह नहीं कर
सकती थी।
एक तो ख़दीजा काकी को वैसी
हालत में जेल तक
ले जाना बड़ा कठिन। फिर पुलिस का
भी डर…जाने कब
थाने बुला ले। जाने
क्या उल्टा-सीधा पूछे..?
तुम आमिर
को कैसे जानती हो..? फिर रमा सिंह
ने एक बार अपनी लड़कियों से बात की, पर लड़कियाँ उसे घर बदलने
की सलाह देने लगी, तो
रमा सिंह चुप हो गयी।
आमिर से मुलाक़ात पर
पुलिस ने
रमजान
चचा की
जो गत की थी, उसके
बाद
आमिर से मिलने की किसी ने हिम्मत नहीं की
थी। जेल में आमिर
को तेरह-साढ़े
तेरह बरस हो गये थे।
उन बरसों में देश और दुनिया में बहुत कुछ बदला। देश के अलग-अलग हिस्सों में कई जगह
धमाके भी हुए। बहुत सारे आमिर और फ़हीम पकड़े गये। लेकिन फिर भी कुछ न रुका।
शहनाज कराँची में ही
थी और वहीं रहना था उसे दफ़्न
होने तक। आमिर
की ख़बर सुनने के
बाद उसके
शोहर ने साफ़ लफ़्जों
में कह दिया था- तुम उस आतंकी के घर कभी जाने का नाम मत लेना। उस परिवार से हमारा
कोई लेना-देना नहीं। यही वजह थी कि शहनाज असद खाँ के इंतकाल पर भी न आ सकी।
आमिर को जेल होने
और जल्दी छुटने की
कोई उम्मीद
नज़र न आने से, सुल्तान खाँ का
धीरज भी चूक गया।
आमिर के भरोसे गुलबानो को बिठाए रखना समझादारी न लगी। उन्होंने ताबड़तोड़ लड़का
ढूँढ़ना शुरू कर दिया। साल छ महीने की भाग-दौड़ में मिल भी गया। लड़का सुल्तान खाँ
के एक दोस्त का था। सभी को पसंद आया। पुलिस में सब इंस्पेक्टर था। सुल्तान खाँ ने
सोचा-पुलिस में है.. तो कम से कम उसे पुलिस कभी आतंकवादी कह कर बंद तो न करेगी।
उसके पीछे परिवार भी सुकून से रह सकेगा। हालाँकि सुल्तान खाँ ऎसा इसलिए सोच रहे थे, क्योंकि
वे शायद नहीं जानते थे कि पुलिस कठपुतली होती है। कठपुतली को नचाने वाली डोर तो
लोगों द्वारा चुने हुए किसी कमीने सिंह के हाथ में होती है। पुलिस के नाच का
कोरियोग्राफ़र वही होता है।
खैर.. गुलबानो का पुलिस सब
इंस्पेक्टर से निकाह कर
दिया।
गुलबानो साढ़े तेरह
साल में चार बच्चों
की अम्मी बन
गयी
और पाँचवे की उम्मीद बनी हुई थी। गुलबानो जो
कुछ कर
सकी, सिवा
इसके कि पहले लड़के
का नाम आमिर रखा। वह बारह साल का था। गुलबानो सुखी थी और
साढ़े तेरह साल पहले के आमिर को भूल चुकी थी।
लेकिन आमिर किसी को नहीं भूला। उसे जेल की
कोठरी में सबकी
याद बहुत
बेचैन करती। वह
अकेले में उनसे
बातें
करता। वह बेचैनी से बचने को जेल से
पढ़ाई करने
लगा
और बी.ए. तक पढ़ भी लिया था।
आमिर के अब्बू के
इंतकाल और अम्मी
के लकवे के बाद वकील को फ़ीस देने
वाला कोई नहीं
था।
हालाँकि वकील पहले ही असद खाँ से
अच्छे-खासे पैसे ऎंठ
चुका था। अब जब फ़ीस देने
वाला असद खाँ नहीं
रहा.. तो वकील को शर्म आ गयी थी। हो
सकता है ऎसा इतिहास
में पहली
बार हुआ था। लेकिन हुआ और आगे वकील बग़ैर फ़ीस के ही केस लड़ता रहा था।
जब-जब फ़हीम से मुलाक़ात होती। फ़हीम
तो कभी कुछ नहीं
बताता। अपनी तरफ़ से
बोलता भी
कम। जैसे
उसके जीवन में अब
कुछ नहीं
बचा है, और
वह बस मौत का
इंतज़ार कर रहा है। बड़ा
उलझा और घुन्ना स्वभाव था
उसका। फिर भी चूँकि आमिर उसी के साथ गाड़ी में पेशी आता-जाता था, तो
उससे बात भी करता था। बात ज्यादातर एक तरफ़ा ही होती। आमिर अक्सर उससे कहता- छुटकर
गुलबानो से निकाह करूँगा। उसके साथ पतंग उड़ाऊँगा। रामलीला मैदान पर रामलीला
दिखाने ले जाऊँगा। अब हमसे मुलाक़ात को कोई नहीं आता है। बस एक गुलबानो ही है, जो
सपनों में रोज चली आती है। कभी नागा नहीं करती।
हम कभी चाँदनी
चौक पर
जाते हैं, कभी दिल्ली
हाट। एक दिन तो
जिद्द
करने लगी- मुझे कुतुब मीनार में ऊपर चढ़ना है..उसे बढ़ी
मुश्किल से
समझाया कि अब उसमें ऊपर न जाने
देते।
गुलबानो अम्मी को भी बहुत पसंद है। वह अम्मी की अच्छे-से
देख-भाल करेगी।
कभी-कभी वह अपने अब्बू के
कारोबार
को फिर से शुरू करने की सोचता। जेल में ख़ाली बैठे-बैठे
उसने कई खिलोने की डिजाइन सोच रखी थी। वे
ऎसे खिलोने
थे जो बाज़ार में नहीं
आये
थे…वह ख़ुद
से मन ही मन कहता- मुझे क्या मालूम …मेरे सोचे खिलोने अभी बाज़ार
में आये कि नहीं.. हो सकता हो; किसी न किसी ने बना लिये
हों.. अगर बना लियें होंगे तो मैं फिर नये सोच लूँगा…।
कभी-कभी कुछ सोचता हुआ थोड़ा निराश हो
उठता- जाने कब मुक्ति मिलेगी इस बनवास से… चौदह
साल तो
होने को आये हैं… अम्मी
राम, सीता
और लक्ष्मण के बनवास का क़िस्सा सुनाया करती थी। लगता है मेरा फ़ैसला भी पूरे चौदह
बरस बाद ही आयेगा। मेरी अयोध्या में…मेरी वापसी भी चौदह बरस बाद
ही होगी..! मेरे लिए तो मेरा गली-मुहल्ला ही अयोध्या है।
फ़हीम जब दो-तीन मर्तबा
अलग-अलग वक़्त
पर आमिर के मुँह से राम, लक्ष्मण
और अयोध्या का नाम सुन चुका.. तो एक दिन उसने पूछा- तुम्हारे अब्बू-अम्मी या दादा…क्या
कोई अयोध्यावासी रहे हैं..?
आमिर ने कहा- नहीं..।
-फिर…? तुम राम, लक्ष्मण और अयोध्या क्यों जपते रहते हो..?
-मेरी अम्मी को रामलीला बहुत पसंद थी न…हर
साल देखने जाती। वह राम के चरित्र से बहुत प्रभावित थी।
उनके बीच जब
भी बातचीत होती….
यों
ही संक्षिप्त-सी बातचीत हुआ करती थी।
एक रात ! आमिर की नींद जेल की
मजबूत
और ऊँची दीवारों को लाँघ कहीं चली गयी थी। आमिर
करवट दर करवट बदल रहा था। कोर्ट में उसके और
फ़हीम के अंतिम कथन हो चुके थे। पिछली पेशी के दौरान वकील साहब ने कहा था कि अब
फ़ैसला कभी भी आ सकता है। तभी से उसके मन में तरह-तरह के ख़याल और ज्यादा तेज़ी से
आने-जाने लगे थे। अगर कोर्ट ने मुझे दोषी ठहरा दिया तो..क्या मेरी अयोध्या मुझे
स्वीकार करेगी..? अगर
कोर्ट ने मुझे निर्दोष करार दिया…तब भी क्या मेरी अयोध्या की नज़र में मैं कभी
निर्दोष साबित हो सकूँगा। क्या मैं अपनी गली-मुहल्ले को याद भी हूँगा…? क्या
वाकय गुलबानो अभी भी मेरा इंतज़ार कर रही होगी..? करती तो पिछले लगभग चौदह
साल में उसके अब्बू या वह एक बार तो मुलाक़ात पर आते..?
फ़हीम के हाल भी
कुछ ऎसे ही
बेचैनी भरे थे। उसने
मन ही मन तय कर लिया था- अगर छूटा तो ताऊजी के
यहाँ नहीं जाऊँगा..। अपने
वतन जाऊँगा….पर
अपने शहर.. अपने घर कभी नहीं
जाऊँगा।
मैं कहाँ
जाऊँगा…? वह
ख़ुद से पूछता। उसे कुछ समझ में नहीं
आता- वह कभी बदला
लेने की सोचता…. फिर
सोचता किससे बदला लूँ…..? कैसे
बदला लूँ…? मुझे
किसी व्यक्ति ने तो नहीं फँसाया..? क्या करुँगा..? कहाँ
जाऊँगा..?
क्या किसी आतंकी समूह
में शरीक
हो जाऊँ….! क्या
अल्लाह की राह
में शहीद
हो जाऊँ..? नहीं..नहीं..
मैं ऎसा कुछ नहीं
करूँगा.. तो फिर क्या करूँगा..? जैसे –जैसे
फ़ैसले के दिन क़रीब आ रहे थे, उसकी बेचैनी बढ़ रही थी… और
वह जाने क्या-क्या सोच रहा था।
कभी-कभी सोचते-सोचते वह
दुआ करने
लगता- मेरे मौला…।
मुझे निर्दोष
होने से बचाना। मैं आतंकी की
छाप लेकर
कहीं जाना नहीं चाहता। मैं जीना
ही नहीं चाहता। मेरे मौला.. महरबानी कर… मुझे मृत्यु दण्ड दे।
आमिर और फ़हीम की ज़िन्दगी भी
कोई
ज़िन्दगी थी..! चौदह-पन्द्रह से
अट्टाइस-उन्तीस के बीच
के जैसी रसीली उम्र जेल में सड़ गयी थी। दोनों की
दाढ़ियों और सिर के
बाल
खिचड़ी हो गये। बाक़ी की उम्र तो बस ताँगे में जुते
घोड़े की तरह चाबुक खाते हुए काटनी थी। चौदहवें साल की आखिरी रात दोनों की आँखों
में बहती हुई गुज़री। दोनों जेल की अलग-अलग कोठरी में थे, पर
दोनों के ज़हन में एक प्रश्न था- क्या होगा कल कोर्ट में….?
फ़हीम दुआ कर
रहा था-
आजीवन कारावास या
फिर मृत्यु
दण्ड से कम कुछ न
मिले।
आमिर पिछले चौदह
साल तो
ज़िन्दगी को
सँवारने के
तरह-तरह के
ख़्वाब संजोता रहा था। लेकिन अब
लग रहा था-
ज़रूरी थोड़ी कि
छूट ही
जाएँगे..! हो सकता है, फ़ैसले में कोई ऎसा दण्ड
मिले कि बाक़ी की उम्र भी जेल ही में कटे..!
वकील की बातें छूटने की
उम्मीद ज़रूर बन्धा रही
थीं, पर
बातों का क्या ..? फ़ैसला
तो जज देने वाला है। चौदह साल तक वही-वही ज़िरह सुनते हुए। वही-वही आरोप झेलते हुए।
उन्हें भी ऎसा यक़ीन हो गया था कि शायद धमाके उन्हीं ने किये थें।
चौदह साल तक
जब-जब भी उन्हें जेल से
पेशी ले जाया गया। किसी ने उन्हें फ़ैसले के दिन जितना उदास कभी नहीं
देखा। उस दिन दोनों के चेहरे फूल की तरह मुरझाये हुए थे। कोर्ट में जज के सामने
जाने से पहले वकील ने हिम्मत बढ़ाने की कोशिश में कहा- फ़िक़्र मत करो.. जो भी फ़ैसला
होगा.. अल्लाह के फ़ज़्ल से ठीक ही होगा। दोनों मन ही मन सोचते रहे- पता नहीं, यह
हमारी परीक्षा की घड़ी है या अल्लाह की।
फिर अचानक आमिर को याद आया कि
पिछली
पेशी के दौरान वकील से गुज़ारिश की
थी कि उसकी अम्मी को
फ़ैसले
की सूचना दे दे। उन्हें
कहे कि
अल्लाह ने चाह तो
मैं जल्द
ही उनकी खिदमत
में हाज़िर हो
सकूँगा..।
फिर आमिर ने वकील से पूछा- अम्मी
को ख़बर कर दी थी….कुछ
कहा अम्मी ने….?
वकील सोचने लगा क्या
कहूँ..? वह
कहने लायक कुछ सोच पाता
उससे पहले आमिर ने दुबारा पूछ लिया।
वकील ने यों ही
कहा- अभी बात करते
हैं… पहले
कोर्ट का
फ़ैसला
सुन लें..।
आमिर को अचानक अम्मी की
याद की
हूक-सी उठ रही थी। उसका जी
तुड़ा रहा था। अम्मी को याद करते हुए उसके चेहरे पर हल्की-सी चमक आ गयी थी। वह
विनम्र लेकिन बेसब्र लहज़े में बोला- नहीं.. पहले अम्मी की ख़बर
सुनाओ… कोर्ट
का फ़ैसला तो जो होना होगा….सो
होगा ही। फिर थोड़ा संयम से वह बोला- अम्मी की ख़बर कोर्ट के फ़ैसले को सहने की
ताक़त बख़्शेगी..।
वकील की ज़िन्दगी में तो
ऎसे वाक़िए आते-जाते
रहते हैं। पर फिर
भी जाने क्यों वकील थोड़ झिझक रहा था। आमिर
की अम्मी
की ख़बर तो उसके पास थी ही। क्योंकि वकील
ने अपने एक जूनियर वकील को भेजा था आमिर के घर। लेकिन वहाँ
उसे आमिर
की अम्मी नहीं
मिली थी। असद खाँ के इंतकाल के बाद जब वकील आया था, तो उसे ख़दीजा के पास रमा
सिंह मिली थी। लेकिन इस बार वह भी न मिली थी। वकील
ने दूसरे पड़ोसी से पूछा। तब पता चला कि रमा सिंह ने ख़दीजा की आखिरी समय तक सेवा
की थी। क़रीब महीने भर पहले ख़दीजा काकी आ…मि…र…आ… मि…र… मे…रा..
रा…म… मे…रा..
रा…म
करते चल बसी।
-और..… वे… क्या नाम उनका…वकील ने याद करते हुए पूछा… रमा सिंह…?
-उसके साथ तो मालिक ने अच्छा न किया… पड़ोसी बोला-
वह
कहाँ गयी किसी को कुछ न बता गयी। सुना उसकी लड़की शर्मिली….
बोलते हुए पड़ोसी का गला रुँध
गया। उसे
याद आया-
अल्लाह ने मुझे भी दो बेटी दी है…। वह ख़ुद को सम्भालता हुआ बोला- अक़बर रोड
किनारे पड़ी मिली थी शर्मिली..। एकदम निर्वस्त्र, कटी-फटी, लूटी
और नौची हुई। उसके बाद रमा सिंह अपनी दूसरी लड़की के साथ कहाँ गयी…कुछ
पता नहीं ..!
जूनियर वकील ने दोनों ख़बरें
अपने सिनियर को हूबहू बता दी थी।
आमिर के बार-बार पूछने पर
वकील और टाल न सका और
उसे कहना
पड़ा- आपकी अम्मी पर
अल्लाह ने बहुत महरबानी की, उन्हें
जहालत भरी ज़िन्दगी से
मुक्त कर
जन्नत में सुकून की
नींद बख़्शी।
आमिर के शरीर का तो जैसे ख़ून ही
ठन्डा
पड़ गया।
पुलिस और
फ़हीम उसके बाजू न पकड़ते तो वह गिर पड़ता। उसे कोर्ट के कटघरे तक ऎसे ही
पकड़े-पकड़े ले गये।
वक़ील भीतर ही भीतर शर्मिन्दगी
महसूस
कर रहा था। उसे लग
रहा
था- इंतकाल की ख़बर देकर ग़लती की। वह
इतना अनुभवी होकर भी यह ग़लती कैसे कर बैठा..? अभी तो
कोर्ट का
फ़ैसला
भी बाक़ी है। जाने किस करवट बैठेगा न्याय
का ऊँट ..? जब
फ़हीम और आमिर को कटघेरे में खड़े कर दिये, तब जज अपना फ़ैसला पढ़ने
लगा। आमिर को लग रहा था कि वह मृत्यु शया पर लेटा है। कोई मृत्यु के वक़्त पढ़े
जाने वाला कलमा पढ़ रहा है।
यह बहुत महत्त्वपूर्ण फ़ैसला था। कोर्ट में जज
के सामने बैठे कई वकील फ़ैसला ध्यान से सुन रहे थे। कटघेरे की तरफ़ किसी का ध्यान
नहीं था। फ़हीम भी फ़ैसले को ध्यान से सुन रहा था। आमिर का वकील मन ही मन यह भाँप कर
ख़ुश हो रहा था कि फ़ैसला आमिर के पक्ष में जा रहा है।
लेकिन आमिर मानो अपने भीतर के सूनसान बीहड़ में
रास्ता भटक गया था, जिससे
बाहर आने की इच्छा का कोई रंग उसके चेहरे पर नहीं था। चेहरा मानो सिर्फ़ एक शून्य
था। हालाँकि बाहर जैसा दिख रहा था वह भीतर वैसा बिल्कुल नहीं था। भीतर चौदह साल और
एक दिन लम्बी क़ैद की यादों की आरियाँ चल रही थीं। पुलिस के लगाये आरोप ने मुझसे
अब्बू, अम्मी
और गुलबानो छीन लिये…. क्या
वे मेरी ज़िन्दगी में फिर से लौट सकते हैं..? क्या मैं वहीं से ज़िन्दगी
की शुरुआत कर सकूँगा, जहाँ
रोक दी गयी थी..?
अगर मुझसे खोया कुछ भी वापस नहीं हो सकता, तो
मुझे ऎसे न्याय से घृणा है। आमिर के भीतर ऎसा ही कोई अंधड़ रपाटे मार रहा था।
फ़हीम के भी हाल आमिर
से जुदा नहीं थे। जैसे
वे ख़ुद से कह रहे
हो- सज़ा तो हम काट चुके
हैं। जो धमाके हमने
नहीं किये उनमें
हमारे परिवार और हमारी ज़िन्दगी के
चौदह साल और
एक दिन मारे
जा चुके हैं। फिर जैसे
उन्होंने भीतर ही भीतर एक साथ ज़ोर से चीख़ते
हुए कहा- हमें नहीं चाहिए, नहीं
चाहिए हमें-
अन्याय से भी क्रूर न्याय।
फ़हीम मौन खड़ा
था। उसके
चेहरे पर
डरावनी विरानगी थी। शायद
भीतर अभी चल
रहा हो-
माथे पर दाग लेकर
कहाँ जाऊँगा..?
अब तक जज पूरा निर्णय पढ़ चुका। आमिर
और फ़हीम निर्दोष करार
दिये जा चुके थे।
उनका वकील केस जीतने की ख़ुशी में भीतर ही भीतर उछल पड़ा। यह उसके करियर की एक
बड़ी उपलब्धि थी। वह तेज़ी से कटघरे के नज़दीक गया। कटघरे की लकड़ी पर रखे आमिर के
हाथ पर हाथ रखा। आमिर के हाथ की ठंडक ने वकील के भीतर बर्फ़-सी जमा दी। पैरों के
नीचे की ज़मीन जैसे बर्फ़ीले दलदल में बदल गयी। उसने उस दलदल में धंसते हुए ही देखा-
आमिर के चेहरे पर महीन-सी चमक है।
-कैसी चमक है यह..?
वकील को कहाँ पता था
कि आमिर के भीतर क्या कुछ गुज़र
चुकी थी- उसके चेहरे पर
आँधी-तूफ़ान की
तरह कई
रंग आ-जा
चुके थे।
फिर यकायक आमिर
की गर्दन
एक बाजू यों लटक गयी जैसे गरदन की हड्डी टूट गयी थी। वह
अदालत के कटघरे से ऎसे टिक गया जैसे गोड़ से कटा कोई पेड़ दीवार से टिका हो। वह
यों शान्तचीत था जैसे महसूस कर रहा हो- साँस की धागन का टूटना। ज़िन्दगी के पिंजरे
से मुक्त होने को फड़फड़ाती किसी गैरय्या की फड़फड़ाहट। उसके ललाट पर जो चमक थी, वह
कोर्ट में जीत की नहीं, बल्कि
मगरूरी और अन्याय के दलदल में डूबती दुनिया से मुक्ति की थी शायद।
यह कोई पहली
बार नहीं
हुआ है। तिरसठ बरसों से
धमाकों और न्याय का
यह सिलसिला
जारी है। न्याय का
दायरा
बढ़ रहा है
दिन-रात। न्याय
के मारे नदी में बहता पानी लाल। मिट्टी, फ़सल, घास-पेड़
पौधे और जंगल लाल। लाल..लाल…लाल फैलता ही जा रहा धरती पर लाल..लाल।
समाप्त
6-7-12 bizooka2009@gmail.com
लेखक हिन्दी कहानी के सशक्त व चर्चित हस्ताक्षर हैं
इनके दो कहानी संग्रह 1 लाल लुगडी के सपने 2 'भेम का भेरू माँगता कुल्हाड़ी ईमान' काफी चर्चित हुऐ हैं
उपन्यास का कलेवर लिए बहुत मार्मिक कहानी है। टोल्स्तोय की कहानी "god sees the truth but waits" याद आ गई।
जवाब देंहटाएंउपन्यास का कलेवर लिए बहुत मार्मिक कहानी है। टोल्स्तोय की कहानी "god sees the truth but waits" याद आ गई।
जवाब देंहटाएंnice
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