अँधेरा

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रंजन अपने बड़े से बंगले के पिछवाड़े में बने छोटे से कमरे में अपने बाबूजी की खाली पड़ी कुर्सी को एक टक देखे जा रहा था. कमरे की इकलौती खिडकी से छनकर आती रौशनी जैसे उसे मुँह चिढ़ा रही थी. रह-रह कर उसे वह दिन याद आ रहा था, जब उसने बाबु जी को इसी कमरे के अँधेरे के हवाले कर दिया था. परन्तु बाबूजी के जीवन में अँधेरे ने अपने पाँव शायद बहुत पहले पसार लिए थे. बैंक अधिकारी की अपनी नौकरी से रिटायर होने के बाद, बाबूजी का अधिकांश समय अपने मित्रों व पुस्तकों के बीच ही व्यतीत होता था. अलसुबह उठ कर बगीचे में सैर को जाना, व्यायाम करना व अपने हम उम्र मित्रों के साथ सम-सामयिक विषयों पर चर्चा करना, फिर घर आकर एक प्याली अदरक वाली चाय के साथ समाचार-पत्र पढ़ना, यही उनका नित्य-कर्म था. समय के पाबंद बाबूजी ठीक ८ बजे बगीचे से लौट आते थे, और दरवाजे की आहट के साथ ही अलका उनकी चाय और समाचार-पत्र लाकर बरामदे में उनकी प्रिय कुर्सी के पास गोल मेज पर रख देती.

फिर एक सुबह बाबूजी का यह नियम टूट गया. घडी की सुइयाँ ९ बजने का संकेत दे रही थी और बाबूजी अभी तक घर नहीं लौटे थे. रंजन बगीचे में जाकर देख आया था और चौकीदार ने बताया की बाबूजी अपने तय समय पर ही घर के लिए निकले थे. फिर अलका और रंजन आस-पडौस में जा कर भी देख आये परन्तु किसी ने भी बाबूजी को नहीं देखा था. करीब १ घंटे की भाग-दौड के बाद जब दोनों घर लौटे तो देखा, बाबूजी बरामदे में अपनी कुर्सी पर बैठे एक टक आसमान को निहार रहे है. रंजन और अलका के पूछने पर बाबूजी अनमने से बोले यूँ ही कुछ काम चला गया था. रंजन चुप-चाप अपने ऑफिस चला गया और अलका अपने गृह-कार्य में संलग्न हो गयी. शाम को जब रंजन लौटा तो सब्जी वाले ने उसे रोका, " भैया जी, क्या आज कल बाबूजी की तबियत ठीक नहीं है? आज सवेरे जब सब्जी बेचने निकला तो बाबूजी गली के नुक्कड़ पर खड़े आने-जाने वालों से अपने घर का पता पूछ रहे थे. मैंने पुकारा तो मुझे भी नहीं पहचाना, और बोले भाई ज़रा मेरे घर का रास्ता बता दो, मैं भूल गया हूँ. तब मैं उन्हें घर छोड़ कर गया, आप लोग थे नहीं तो बता नहीं पाया." सब्जी वाला प्रतिदिन गली के नुक्कड़ पर खड़ा होता था और सभी उसी से सब्जी लेते थे और बाबूजी भी घर के लिए उसी से सब्जी लाया करते थे. उसकी बातो ने रंजन को हैरान कर दिया क्योंकि बाबु जी ने झूठ कहा था की वह काम से गए थे. सोते समय रंजन ने अलका से सारी बात कही तो अलका ने कह कर टाल दिया कि अक्सर बुढापे में याददाश्त कमजोर हो जाती हैं.
फिर तो यह प्रतिदिन का क्रम हो गया. बाबूजी की भूलने की आदत बढती ही जा रही थी, जिससे उनके निजी काम भी प्रभावित होने लगे. कभी नहाने के कुछ देर बाद फिर से नहाने चले जाते, तो कभी अलका को पुकार कर भूल जाते कि क्यों पुकारा था. किराने वाले को सामान के पैसे देकर सामान वही छोड़ आते. फिर एक दिन जब अलका अपनी सहेली के यहाँ गयी हुई थी, तब बाबूजी को चाय पीने की इच्छा हुई और खुद ही रसोई में चाय बनाने गए, फ्रिज से दूध निकालने के लिए फ्रिज खोला और लौट कर कमरे में आ गए. एक घंटे बाद घर आने पर अलका ने देखा गैस के चूल्हे पर चाय का पानी उबल-उबल कर भाप बन चुका था और खाली पतीला जल कर राख हो गया था. शायद कुछ देर और हो जाती तो आग लग जाती.
उस दिन के बाद बाबूजी को घर में अकेले छोडना मुश्किल हो गया और अकेले बाहर जाने पर भी रोक लगा दी गयी. अगर रंजन और अलका को एक साथ कही जाना होता तो बाहर से ताला लगा कर जाते थे. फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ की दोनों के पैरों तले ज़मीन खिसक गयी. रंजन के बॉस को रंजन ने डिनर पर आमंत्रित किया था, अलका खाना बनाने में व्यस्त थी और रंजन बाज़ार से मिठाई लाने चला गया. तभी बाबूजी घर से बाहर निकल गए. रंजन घर लौटा तो देखा दरवाज़ा खुला है और बाबूजी अपने कमरे में नहीं हैं. तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई और अपने बॉस के साथ फटेहाल बाबूजी को देखकर रंजन और अलका का चेहरा शर्म से लाल हो गया. बॉस से ही पता चला कि बाबूजी मंदिर के बाहर खड़े कुछ भिखारियों की टोली के साथ भीख मांग रहे थे.
अगले दिन रंजन बाबूजी को मनोचिकित्सक के पास ले गया. पूरी बात सुनने के बाद मनोचिकित्सक ने बताया की बाबूजी को अल्जाइमर नाम की बिमारी है जिसका कोई इलाज़ नहीं है और धीरे- धीरे याददाश्त में कमी आती जाती है और मरीज खुद को और अपने आस-पास की घटनाओ को भी भूलने लगता हैं. शायद उसी दिन से रंजन के मन में एक उदासीनता ने घर कर लिया था. इसी बीच एक नन्हे मेहमान के घर में आने की खबर से रंजन और अलका अपने जीवन की सबसे बड़ी खुशी में डूब गए और बाबूजी की जिम्मेदारी उन्हें भारी लगने लगी. हर दिन मेहमानों और दोस्तों के सामने शर्मिंदगी से बचने के लिये, बाबूजी को बंगले के पीछे बने कमरे में स्थानांतरित कर दिया गया. तब से वो एक खिडकी वाला बंद कमरा बाबूजी की दुनिया बन गया. अपनी खुशी में मग्न रंजन और अलका बाबूजी की अकेलेपन की पीड़ा से अनजान बस उनके खाने-पीने की जरूरतों को पूरी करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते थे. अपने भीतर के अंधेरो के साथ-साथ बाबूजी उस अँधेरे कमरे के गहराते सायो से भी डरने लगे थे.
एक सुबह जब घर के नौकर, गोविन्द ने उनकी पौती के आने की खबर दी, तो उस नन्ही परी को देखने के लिए उनका मन मचलने लगा. बहुत मिन्नतें करने पर गोविन्द ने बच्ची की एक झलक दिखाने के लिए उनके कमरे से बाहर निकाला. रंजन ऑफिस के लिए निकल चुका था और अलका अपने कमरे में बच्ची के साथ सोयी थी. दूर से ही अपनी पौती को आशीर्वाद देकर बाबूजी अपने कमरे में लौट गए. तभी अलका ने गोविन्द को पुकारा, और जल्दी में वह दरवाजा बंद करना भूल गया. बाबूजी को अपनी आज़ादी की राह मिल गयी और एक छोटे से सूटकेस के साथ वह निकल पड़े अपने अनजान सफर पर.
आज बाबूजी को गए एक महीने से ज्यादा का समय हो चुका था पर उनका कहीं पता नहीं था. रंजन के मन का अपराध-बोध उसे दिन-रात कचोट रहा था. काश अपने स्वार्थ से परे उसने बाबूजी की पीड़ा को समझा होता, उनके अँधेरे होते जीवन में थोड़ी सी रौशनी भरने की कोशिश की होती, तो शायद इस अँधेरे कमरे से निकलकर एक अनजान अँधेरी दुनिया में बाबूजी को भटकना नहीं पड़ता.


  • विनिता सुराणा 
  •  Jaipur (Raj.) 302004

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढिया ...जिंदगी के हर रंग से गुज़ारा हुआ

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  2. काश अपने स्वार्थ से परे उसने बाबूजी की पीड़ा को समझा होता, उनके अँधेरे होते जीवन में थोड़ी सी रौशनी भरने की कोशिश की होती, तो शायद इस अँधेरे कमरे से निकलकर एक अनजान अँधेरी दुनिया में बाबूजी को भटकना नहीं पड़ता./ wah, bahut sundar rachana.

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  3. काश अपने स्वार्थ से परे उसने बाबूजी की पीड़ा को समझा होता, उनके अँधेरे होते जीवन में थोड़ी सी रौशनी भरने की कोशिश की होती, तो शायद इस अँधेरे कमरे से निकलकर एक अनजान अँधेरी दुनिया में बाबूजी को भटकना नहीं पड़ता./ wah, bahut sundar rachana.

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  4. बहुत सुन्दर तरीके से मानवीय रिश्तों को चित्रित किया है , जीवन की आपाधापी में हम बच्चे अपने बुजुर्गों की ठीक से देखभाल नहीं कर पाते , . बहुत बधाई सुनीता जी ! shekhar shrivastava

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