आधी रात की नाजायज संतानों का विड़ंबनात्मक चलचित्र डॉ.विजय शिंदे

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प्रस्तुत किताब बेस्ट सेलर बुकर प्राप्त किताब रही है और दो-तीन साल पहले इस पर 'मिडनाईट चिंल्ड्रन' फिल्म भी बनी है। एक उत्कृष्ट किताब की समीक्षा पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास है। समीक्षा को पढकर पाठकों का फिल्म देखने का अगर मन कर रहा है तो यु टूब पर फिल्म भी देख सकते हैं।
      धन्यवाद।
  आधी रात की नाजायज संतानों का विड़ंबनात्मक चलचित्र
   भूमिका
भारतीय और हिंदी साहित्य के इतिहास में एक नाम बडे आदर के साथ लिया जाता है- अमीर खुसरो का। आदिकालिन हिंदी साहित्य का एक ऐसा कवि जिन्होंने मुसलमान होकर भी भारतीय संस्कृति के साथ जुड़कर ऐसी जबरदस्त पहेलियों और मुखरियों का निर्माण किया जो लाजवाब है। भारतीय लोकसाहित्य - लोकसंस्कृति का इतिहास - पहेलियां। यहीं पहेलियां भारत की अन्य विविध भाषाओं के साहित्य में आज भी उतरती है। सीधे कहना चाहिए कि पहेली बुझाकर बताया जाता है, जिससे कथन का प्रभाव पडता है। समय और काल के प्रवाह में उसका स्वरूप बदला, बदलता गया। आज वह पहेली वैसी नहीं है जैसे अमीर खुसरो की थी।
      "एक थाल मोती से भरा, सबके सर पर औंधा धरा।
वह थाली चारों ओर फिरे, मोती उससे ना गिरे।।"
यह अमीर खुसरों की पहेली। और पहला थोडा-सा रूककर दूसरे से उत्तर मांगता। पहला और दूसरा कोई भी हो सकता था – सखा-सखी या दोनों भी सखियां। समय निकलता जाता और उत्तर न आने  पर अधीर सखी पूछती और खिलखिलाहट के साथ, पहली सहेली उत्तर देती - ‘आकाश’। प्राचीन पहेली बुझाने का स्वरूप साहित्य में आज प्रतीकात्मकता, बिंब विधान के नाते उतर चुका है। यहां मेरा प्रतीक एवं बिंबों से तात्पर्य कविता संबंधित नहीं तो गद्य साहित्य के भीतर के ऐसे घुमावदार मोड, जो इतिहास का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं, वर्तमान का परिदृष्य एवं चलचित्र होते हैं, जो जीवित लोगों के साथ सीधा संबंध रखते हैं, उनके स्पष्टीकरण के लिए प्रतीकों एवं बिंबों का सहारा लेना पडता है। लेखक के समकालीन पात्र जीवंत होते हैं और उनका जैसे के वैसे चित्रण करना खतरों से भरा होता है; अतः लेखक प्रतीकों का सहारा लेता है। लेखक दिल के भीतर की एवं समकालीन इतिहास की सच्चाई बड़ी इमानदारी के साथ थोड़ा सजग रहकर पहेली के माध्यम से उठाकर सतह पर लेकर आता है। ऐसे एक नहीं हजारों लेखक हैं, देशी और विदेशी भाषा में भी। ऐसे लेखकों की कतार में एक नाम उठकर आगे आता है अहमद सलमान रश्दी। भारतीय मूल का अंग्रेजी लेखक। ‘मिडनाईट चिल्ड्रेन’, ‘द सॅटॅनिक व्हरसेस’ अर्थात् ‘आधी रात की संतानें’, ‘शैतानी आयतें’ के निर्माणकर्ता। इनकी प्रत्येक कृति अंग्रेजी साहित्य में हड़कंप मचा चुकी हैं। ‘आधी रात की संतानें’ को 1981 में विश्व साहित्य स्तर पर श्रेष्ठ साहित्य के नाते ‘बुकर’ पुरस्कार से नवाजा गया। और कुछ साल पहले पिछले 40 वर्षों के इतिहास में सर्वश्रेष्ठ ‘बुकर’ विजेता के नाते घोषित हुआ। ‘शैतानी आयतें’ उपन्यास को इस्लाम विरोधी मानकर विरोध किया गया और 1989 में ईरान के तत्कालीन धर्मगुरु अयातुल्ला खुमेनी ने रश्दी के विरोध में ‘मौत’ का फ़तवा भी जारी किया। खैर, अभी रश्दी इग्लैंड के निवासी है और भारत- पाकिस्तान अर्थात् हिंदू-मुसलमान-सीख-ईसाई एवं अन्य सांस्कृतिक परिवेश पर केंद्रीत बेबाकी से लेखन करते हैं।
‘आधी रात की संतानें’ उपन्यास में भी सलमान रश्दी ने भारत-पाक-बांग्लादेश के परिदृश्य के लगभग 65 वर्ष की घटनाओं को पकड़ कर एक पहेली में बांधा है, प्रतीकात्मकता दी है और ‘कोडिंग’ है। पाठक के लिए यह उपन्यास आवाहन है उस दृष्टि से कि पहेली सुलझाओं, प्रतीकों के अर्थ जानों और ‘डिकोडिंग’ करो। 1915 को शुरू होने वाला यह उपन्यास  1977-78 तक की घटनाओं को बांधता है। आदम अजिज से शुरू होकर- अमीना अजिज (सिनाई), अहमद सिनाई, सलीम सिनाई और आदम सिनाई तक पहुंचता है। परंतु यह सफर आसान नहीं अनेक कोनों, घुमाओं एवं मोडों से होकर चरमसीमा तक पहुंचता है। इन पात्रों के साथ अनेक पात्र, उपपात्र जुड़कर आते हैं और प्रतीकात्मक तौर पर हिंदुस्तान से निर्मित भारत, पाकीस्तान, बांग्लादेश तथा अन्य छोटे-मोटे हिस्सों को ‘आधी रात की संतानें’ बनाकर उसकी अंदरूनी परिस्थिति का वर्णन करते हैं। लेखक ने मानवीय पात्रों को देश-प्रदेश से जोड़ कर प्रदेशवाद, सांप्रदायिकता, विभाजन, अलगाववाद, युद्ध, संघर्ष, अमीरी-गरीबी, नंपुसकता, गांधीजी का खून, आपातकाल... आदि घटनाओं का विड़ंबनात्मक तरीके से वर्णन किया है। 
1. जन्म
      ‘आधी रात की संतानें’ इस उपन्यास में सलीम सिनाई मुख्य पात्र है और यह कुछ अंशों में सलमान रश्दी का प्रतिनिधित्व भी करता है। हालांकि रश्दी का जन्म 19 जून, 1947 का है, इसे थोडा-सा उन्होंने आगे बढाकर 15 अगस्त, 1947 तक खिंचकर भारत-पाकीस्तान के जन्म के साथ जोड़ दिया। भारत-पाक का वर्तमान जैसे-जैसे भविष्य की टोह लेगा वैसे-वैसे सलीम सिनाई बनता जाएगा। यह जन्म केवल सलीम का या भारत-पाक का नहीं तो भारत – पाक में निवास कर रहें संपूर्ण जनता का भी है। सलीम की पैदाइश 15 अगस्त, 1947 रात 12 बजे बंबई में हो गई और इसी समय भारत और पाक का भी जन्म दिल्ली और इस्लामाबाद में। सलीम के साथ और 420 बच्चे पूरे भारत में बिल्कुल 12 बजे जन्में परंतु अखबार और नेहरू जी के अभिनंदन का पात्र बनने का अधिकार केवल सलीम के हिस्से ही आया। अतः अखबारों के मुखपृष्ठ पर छाने का, रेडियो पर नाम पहुंचने का पहला मौका सलीम को ही मिला और यहीं पर उसकी जन्म कुंड़ली दो देशों के जन्म कुंड़ली के साथ जुड़ती है। अब हम इन दो देशों के इतिहास की परतों को जानते हैं, मोडों को जानते हैं, परंतु लेखक ने उन परतों एवं मोडों के साथ सलीम को जोडा बडी कुशलता के साथ, इसे संयोग कहे या आश्चर्य पर जुड़ते गए। लेखक उपन्यास को पहेली बनाकर लिखता है कि "...किसी को खुदा कहा जाता था जो खुदा नहीं था, किसी और ने भूत का रूप धरा था, मगर वह भूत नहीं था, और एक तीसरे आदमी ने पता लगाया कि हालांकि उसका नाम सलीम सिनाई था, वह अपने अम्मी-अब्बा का बेटा नहीं था...।"(पृ.7) ऐसा क्यों सलीम अपने अम्मी-अब्बा का बेटा क्यों नहीं ? भारत-पाक-बांग्लादेश हिंदुस्तान के बेटे क्यों नहीं ? इसलिए कि यह हिंदुस्तान की नहीं तो अंग्रेजों की निर्मिति थी। वे एक ऐसी व्यवस्था बनाकर गए थे कि बेटों से बेटे जन्मते जाए और असली बाप-कर्ता-धर्ता वे हो।
2. विभाजन
यह बताने की जरूरत नहीं कि 15 अगस्त, 1947 को भारत-पाकीस्तान की निर्मिति हो गई परंतु विड़ंबना आगे चल कर यह है कि हिंदुस्तान का आखिरी वायसराय अर्ल माउंटबेटन ने घडी की टिकटिक के साथ विभाजन के बीज ऐसे बोए कि पूछे नहीं, उससे फल कड़वे निपजते गए। उसने दिमाग, कुटिलता, षड़यंत्र के साथ ऐसे तीन टूकडे किए जिसके आधार पर इन देशों के भविष्य को कुतर-कुतर खाया जाए। भारत-पाक के रिश्तों में जो तनाव है वह तनाव इतिहास में बोया गया है। आजादी के वक्त और उसके पहले। इस तनाव का, वर्तमान युग में युरोपीय देश और अमरिका बडे आराम के साथ लाभ उठा रहे हैं। ये दोनों बच्चे, और 15 दिसंबर, 1971 में निर्मित बांग्लादेश अब जवान बन चुके हैं। जवान तथा युवा बच्चों के जवानी पर 512 वर्ष पूरानी कहे या 350 वर्ष पूरानी वेश्या- युरोपीय देश एवं अमरिकियों की नजर पडी है। जवान बेटों को बेवकुफ बनाकर शोषण करना चाहते हैं।
3. कत्लेआम-आगजनी और सांप्रदायिक कडवाहट
      ‘आधी रात की संतानें’ में 1947, महाराष्ट्र-गुजरात विभाजन के वक्त का कत्लेआम-आगजनी का वर्णन आया है। पर यह केवल एक-दो घटनाएं नहीं है। गोवा, हैद्राबाद, कश्मीर, मुंबई, पंजाब, दक्षिण भारत में कई बार प्रदेशवाद, संप्रदायवाद, जातिवाद को लेकर कत्लेआम हुआ। घर, गांव, शहर, जनता आगजनी के घटनाओं से झुलसती रही। मुंबई बम विस्फोट, गोध्रा हत्याकांड़, बेळगांव प्रदेशवाद, बाबरी मस्जिद का गिरवाना, पंजाब आपातकाल, इंदिरा जी की मृत्यु... एक नहीं हजारों घटनाएं जिसमें भारतीयों का कत्ल हुआ। यह केवल भारत में नहीं तो पाकीस्तान में भी इससे भयानक चलचित्र देखे जा सकते हैं। आजादी के पश्चात् दोनों तरफ हिंदू-मुसलमानों का कत्लेआम हुआ और जला कर राख की गई, प्रेतों से भरी ट्रेनों का आवागमन हुआ। उपन्यास में मुंबई के भीतर सलीम के अब्बा अहमद सिनाई के ‘अर्जून इंडोबाईक’ गोदाम को आग लगाई जाने का जिक्र है। वैसे मुसलमानों में भारत के भीतर, पहले-से ही असुरक्षा के भाव हैं उससे बचने के लिए हिंदू नाम धारण करना या कंपनियों का नामकरण हिंदू मिथकीय कथाओं से, पात्रों को उठा कर करने का प्रचलन है। अहमद सिनाई ने भी वहीं किया पर विड़ंबना यह है कि उन्हें दस सिरों वाले रावण से ढूंढा गया और गोदाम में आग लगाई गई।
      भारत कृषि प्रधान देश है और इसके लिए पुरबी और पश्चिमी हवा महत्त्वपूर्ण होती है परंतु इस हवा के रूख की किसी को चिंता नही; चिंता है राजनीतिक हवा की, जो हमेशा उत्तर से ही बहती है। अर्थात् पूरे भारतीय परिदृष्य को देखे तो राजनीतिक खेती बडे जोर-शोर से की जा रही है और उसका सबसे बडा कारगर हथियार सांप्रदायिकता (धार्मिकता) है। उत्तर से बहने वाली राजनीति से प्रेरित सांप्रदायवादी हवा हमेशा जहरिली और खून से लथपथ होती है। "यह आजादी सिर्फ अमिरों के लिए है, गरीब मक्खियों की तरह एक-दूसरे से मरवाए जा रहे हैं। पंजाब में, बंगाल में। दंगे-दंगे, गरीबों के खिलाफ गरीब। यह हवा में है।" (पृ.130) जब भी ऐसी परिस्थितियां निर्माण होती है हरे-केसरियां-नीले-पीले-काले... रंगों का भी युद्ध शुरू होता है।
3. मुसलमानों की राष्ट्रभक्ति पर संदेह
      मुसलमान मुसलमान है, इसमें उनका क्या दोष है ? कतई नहीं। तो भारत में मुसलमानों को और पाकीस्तान में हिंदू और सिखों को संदेह की नजरों से क्यों देखा जाता है। जब कोई हमला होता है, सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठती है या आपातकालीन स्थिति पैदा होती है तब मुसलमानों की राष्ट्रभक्ति पर प्रश्न चिह्न लगाया जाता है, चाहे वह कितने भी इमानदार हो। सलीम सिनाई के अब्बा अहमद सिनाई के सारे कारोबार को सिल लगाने की बात उठती है और उनके कारोबार पर शक किया जाता है। लाजमी है ऐसे हालातों में मुसलमानों को तकलिफ होगी ओर निस्सिम राष्ट्रभक्ति को ठोकर लगेगी। ऐसी परिस्थिति में अन्याय अगर हो रहा है तो चुप बैठ कर सहन करने के अलावा कोई मार्ग रहता नहीं है। ऐसे ही एक मुश्किल घटना क्रम में अहमद सिनाई गुस्सा होकर कहते हैं, "तुम अपनी कमीज उठाते हो और पतलून नीची कर लेते हो। बीबी, यह सरकार हम सब पर मूत रही है।" (पृ. 255) अहमद सिनाई का गुस्सा फुट पड़ना गलत नहीं है। इमानदारी से अगर कोई आदमी राष्ट्रभक्ति कर रहा है तो गुस्सा तो आएगा ही। छोटी-मोटी स्थितियों में डराना-धमकाना तो आम बात है।
4. आधी रात की संतानें
      ‘आधी रात की संतानें’ संपूर्ण तरिके से प्रतीकात्मक उपन्यास है, जो तीन खंडों और तीस अध्यायों में लिखा है। लेखक की भाषा में तीस अचार के डब्बे। जो नमक-मिर्च और अनेक प्रकार के मसाले लगा कर भर दिए हैं। घटानाओं-दर-घटनाओं एवं समय-दर-समय खट्टे होते जाते हैं। सलीम सिनाई और शिव आधी रात के 420 संतानों में से दो संतानें। एक मुसलमान और एक हिंदू। एक अहमद सिनाई की अमीना का ? और एक वि विंकी विला की वनिता का ? परंतु विड़ंबना यह है कि डॉ. नार्लिकर के अस्पताल में जोसेफ डिकोस्टा को बचाने के लिए मैरी परेरिरा ने इन दो बच्चों के जन्मते ही उनकी नाम पट्टियां बदली थी। एक हिंदू बच्चा मुसलमान बन कर शानो-शौकत से रह रहा है और एक मुसलमान बच्चा हिंदू बन कर दर-दर की ठोकरें खा रहा है। सलीम और शिव। भारत और पाकीस्तान। पूरी तरह से प्रतीकात्मकता। सलीम के नाक की बीमारी और शिव के मजबूत घूटने भी देश की भविष्यवाणी एवं प्रकृति का संकेत देते हैं। उपन्यास में रश्दी जी ने बाइस्कोप वाले का जिक्र किया है, जिसमें वह गली-गली घुमकर ‘दिल्ली देखो’ का नारा लगाता है। वैसे उस बाइस्कोप वाले का भाई एक अच्छा भविष्यवक्ता है जिसने अमीना के बच्चे का भविष्य बताया था जो भारत–पाक के साथ जुड़ जाता है। भविष्यवक्ता गांधी जी का प्रतीक है। उसने बताया था कि अमीना का बच्चा दो सिरों का होगा अर्थात् दो सिर मतलब भारत और पाक है। मां अगर दूसरा सर देखना चाहे तो उसे वह दिखाई नहीं देगा ऐसी स्थितियां भविष्य में पैदा होगी इसका संकेत भी शुरू में दिया था। अर्थात् रश्दी जी ने संपूर्ण उपन्यास में प्रतीक और फंतासी शैली का इस्तेमाल किया है।
      नेहरू और जिन्ना की मंशा का वर्णन उपन्यास में है। महम्मद अली जिन्ना जो मृत्यु शय्या पर पहुंच रहे थे ‘अपनी जिंदगी में ही पाकीस्तान बना देखना चाहते थे और उसे सुनिश्चित करने के लिए कुछ भी करने पर अडे थे।’ आधी रात की संतानों में केवल भारत या पाकीस्तान ही नहीं तो हैद्राबाद, गोवा, पांडेचरी, अंदमान-निकोबार, बांग्लादेश, कश्मीर, दक्षिण भारत, पुरबी भारत, पंजाब एवं सभी प्रदेशों के भीतर बढ़ रही अलगाववाद की बातों का जिक्र आ जाता है। उनमें से कुछ की मंशाएं पूरी हो गई, कुछ की नहीं। "बहुत सारे बच्चें बचने में नाकाम रहें। कुपोषण, बीमारियों और रोजमर्रा के अभावों ने कम-से-कम उनमें से चार सौ बीस बच्चों को उससे पहले ही ग्रस लिया था।" (पृ. 249) जीवित बेटों की अंदरूनी स्थितियां भी गड़मड़ थी। पाकीस्तान के राष्ट्रपति अयुब खां के बेटे की गांधार इंडस्ट्री रातोंरात करोडपति बनी थी। संजय गांधी और मारूती कार कंपनी, कांतिलाल देसाई जो मोरारजी देसाई के बेटे थे, इन सबके गलत कामों के ब्योरे अखबारों में छप रहे थे। अर्थात् महान लोगों के बेटे अपने मां-बाप को बर्बाद कर रहे थे। खुशवंत सिंह द्वारा लिखित ‘थोडा-सा प्यार थोडी शरारत’ इस किताब में भी इन घटनाओं से जुडी बातों का समान सूत्र देखा जा सकता है।
      उपन्यास में तब चरम नाटकीय मोड़ आ जाता है जब सलीम सिनाई की पत्नी पार्वती शिव से आदम सिनाई को जन्म देती है। रश्दी शिव से जन्मे कई बालकों एवं गर्भ धारण की सुंदर-अमीर महिलाओं का जिक्र करते हैं जो वाकई विड़ंबना है। "बेशक संतानें थी। नाजायज, आधी रात की पैदाइशें। अमीर के पालने में उछलते महफूज शिशु। भारत के नक्शे पर हरामियों को बिखेरते हुए, युद्ध नायक अपनी राह चलता गया।" (पृ. 519) संक्षेप में कहे तो चारों तरफ केवल अंधाधूंधी छाई है।
      उपन्यास के शुरूवाती हिस्से में आदम अजिज के डॉक्टर होने और एक औरत का चादर की सुराख से इलाज करने का जिक्र आ जाता है। कालांतर से सुरक्षित रखी चादर को फफुंद लगती है, दिमक खा जाते हैं और कई सुराख पड़ते हैं, यह चादर हिंदुस्तानी परिदृश्य को लेकर आती है और अलगाववाद और विभाजन के संकेत देती है। जो होना था होकर रहता है, हिंदुस्तान के तीन टूकडे। परंतु एक-दूसरे के चेहरे को तहस-नहस करके, दाग छोड़ कर। सलीम सिनाई के अध्यापक जगैलो भारतीय नक्शे का परिचय देकर पाकीस्तान के लिए गाली देते हैं और भारत-पाक नाजायज होने की विड़ंबनात्मक टिप्पणी करते हैं। "ये दाग’ वह चिल्लाता है, ‘पाकीस्तान हाय। दाएं कान पर यह लहसन पूर्वी किनारा हाय। और यह खौपनाक दागदार बायां गाल पश्चिमी किनारा। याद रखना बेवकूफ बच्चोः पाकीस्तान भारत के चेहरे पर एक दाग हाय।" (पृ. 294) आधी रात की संतानों में अलगाववाद और विभाजन की रेखाओं से इतनी कटूता आ गई थी कि जिन्हें एक-दूसरे से राजनीतिक और भौगोलिक खतरें पैदा हो गए थे। इन खतरों से अस्तित्व पर दाग निर्माण हो रहा था।
5. अमीरी-गरीबी
      भारत और पाकीस्तान दोनों देशों में अमीरी और गरीबी देखी जा सकती है। अमीर और गरीबों के बीच दिन-ब-दिन फासले बढ़ते जा रहे हैं। अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब होते जा रहे हैं। इस खाई से विद्रोह –असंतोष पनपते जा रहा है। आजाद देश के प्रत्येक नागरिक का देश की संपत्ति पर उतना ही अधिकार है जितना अमीरों का। पर वास्तव तो ऐसे नहीं है। एक देश में अमीर सलीम और गरीब शिव है। शिव देश की स्थिति एवं अमीरों के प्रति मन में विद्रोह पाले बैठा है। "इस समूची बहनचोद दुनिया में ‘वजह’ क्या चीज है यारा ? किस वजह से तुम अमीर हो और मैं गरीब हूं। X X X जो तुम पा सकते हो, तुम्हें पाना है, इसका जो कर सकते हो, करना है और फिर तुम्हें मर जाना है। यहीं वजह है अमीर लड़के। बाकी सारी चीजें मादरचोद पाद है।" (पृ. 280) ये...ये विद्रोह कहां से आता है। एक देश के भीतर दो देश। एक अमीर भारत और एक गरीब भारत तब ऐसी फौश गालियां आना संभव है। यहां तक कि शिव के पिता वि विंकी विला रुपए कमाने के लिए, उसे फुसला कर, आंखों पर पट्टी बांध कर अंधेरे कमरे में ले जाते हैं, जहां पर हथौडे से उसके पैर तोड़ कर भीख मांगने का इंतजाम करने का प्रयास करते हैं। ‘स्लम डॉग मिलिनियर’ में ऐसे ही अपाहिज गरीब बच्चों को भीख मांगते दिखाया है। ऐसे विड़ंबनात्मक दृश्यों का चित्रण भारत में रह रहे लेखकों के साहित्य में नहीं या है तो संभल कर क्योंकि ऐसा लिखने से वे डरते हैं ? या उनकी आंखों पर पट्टियां है ? प्रशंसा की, प्रसिद्धि की, पुरस्कारों की...? सलमान रश्दी ने इसे लिखने का साहस किया है।
6. युद्ध और आपातकाल
      ‘आधी रात कि संतानें’ उपन्यास में तीन युद्धों का वर्णन आया है। पहला भारत चीन, नेहरू समय में, 1962 को और दूसरे दो इंदिरा जी के समय में 1965 तथा 1971 का। ‘भारत-चीनी भाई-भाई’ नारे को गलत साबित करते, झूठे कारण दिखाकर चीनियों ने भारत पर आक्रमण किया और उसे पाकीस्तान ने सही भी ठहराया। हालांकि भारत-पाक एक ही कोख से जन्मे थे। नेहरू जी की दयनीय स्थिति, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पेचिदगियों का वर्णन उपन्यास में है और इसी दौरान सलीम सिनाई के नाक की सुजन-फुलने का और नेटिहा का बहने का वर्णन आया है। दोनों का एक-दूसरे से जुड़ कर दमघोटू परिस्थिति का जिक्र है, प्रतीकात्मक अर्थों में।
      पाकीस्तान ने भारत के चेहरे का ‘दाग’ होने का मुहावरा बखुबी निभाया, 1965 में बेवजह कश्मीर पर आक्रमण और चारों खाने चीत होने का विस्तृत वर्णन भी है। इस घटना के पहले सलीम सिनाई का पूरा परिवार पाकीस्तान में स्थानांतरित हुआ था और युद्ध के दौरान हुए हवाई हमले में सारा परिवार मारा भी गया था और बचता केवल सलीम सिनाई है। पूरे परिवार की मृत्यु के पश्चात् सलीम अपने जन्म को लेकर, पिता को लेकर, मां की अनैतिकता को लेकर जिन साशंकताओं से गुजर रहा था उससे आजादी पाता है। और इधर पाकीस्तान जबरदस्त पराजय के बाद, ध्वस्त शहरों एवं मनोबल के साथ राष्ट्रीय ओर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी ओकात भी समझ लेता है। पूर्वी और पश्चिमी पाकीस्तान का बने रहना भारत के लिए खतरों वाला था; अत; ताक में बैठे भारत को पाक ने मौका दिया। राजनीतिक हवस से जुल्फीकार अली भुट्टो और मुजीबर्रहमान के बीच में संघर्ष हुआ। पूर्वी पाकीस्तान में अशांति और अस्थिरता फैल गई और सैनिक कार्रवाई की जाने लगी। पाकीस्तानी सैनिकों के अत्याचार बढ़े और बांग्लादेशियों का भागना शुरू हुआ भारत की ओर। पहले से गरीबी ढो रहे भारत को बांग्लादेशियों का बोझ उठाना मुश्किल हुआ और अंतर्गत सुरक्षा के चलते ज्यादा दिनों तक रूकना खतरों से भरा था। पडोसी घर जल रहा है और उसे देखते बैठना और आग अपने घर तक आने की छूट देना मुर्खतापूर्ण हो सकता था। अतः ‘मुक्तिवाहिनी’ सैनिकों के बलबूते पर 15 दिसंबर, 1971 को पूर्वी पाकीस्तान को बांग्लादेश के रूप में भारत के प्रयासों से मुक्ति मिल गई।      इन दो युद्धों के बीच इंदिरा गांधी की साख देश में घट रही थी और मोरारजी देसाई तथा जयप्रकाश नारायण के आंदोलन चरम पर पहुंच रहे थे। राजनीतिक पकड़ बनाए रखने के लिए इंदीरा जी ने आपातकाल की 25 जून, 1975 को घोषणा की। इंदिरा जी का ‘आपातकाल’ का फैसला नाजायज था। प्रतीकात्मक अर्थों में सलमान रश्दी ने इसका बारिकी से वर्णन किया है। सलीम की पत्नी पार्वती को फौजी शिव से आदम की प्राप्ति होती है और पार्वती लगभग तेरह दिनों तक प्रसव वेदना से पीडित थी और इधर राजनीति में घटती साख को बनाए रखने के लिए इंदिरा जी इतने ही दिनों तक आपातकाल की घोषणा करने की कशमकश और पीडा में कराह रही थी। कशमकश और पीडा से मुक्ति पाने का उन्हें एक ही मार्ग सूझा ‘आपातकाल’ को जन्म देना। अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए इंदिरा जी ने राजनीतिक दृष्टि से नाजायाज कदम उठाए ऐसा साफ उल्लेख उपन्यास में आता है। (पृ. 531) इंदिरा जी ने फौजियों की मदत से विरोध करने वालों पर अन्याय-अत्याचार किए। जोर-जबरदस्ती नसबंदिया भी करवाई, आजादी छिनी। सलीम सिनाई इस दौरान राजबंदी थे, उस पर की गई जबरन नसबंदी का वर्णन लेखक ने किया है। "वे अच्छे डॉक्टर थेः उन्होंने इत्तिफाक पर कुछ नहीं छोडा। जनसाधारण पर की जाने वाली नसबंदी हम पर नहीं, क्योंकि उनमें अंदेशा रहता था, बस एक अंदेशा कि वैसे ऑपरेशन कामयाब नहीं भी हो सकते थे... काट-छांट की गई, मगर अचूकः अंड़कोषों से अंड़ निकाले गए, और कोख हमेशा के लिए गायब हो गई।" (पृ. 555) अत्याचार की परिसीमा। तर्क दिया गया कि ऐसी घटनाएं थोडी हो गई है। पर प्रश्न निर्माण होता है थोडी भी क्यों ? आजाद देश में एक व्यक्ति पर भी अत्याचार नहीं होना चाहिए।

निष्कर्ष
      आधी रात की नाजायज संतानों का विड़ंबनात्मक चलचित्र ‘मिडनाईट चिल्ड्रेन’ को जरूर माना जा सकता है। जिन बच्चों के पास भविष्य में उडान भरने की अदम्य ताकत है परंतु अमरिकी-युरोपियों के फुसलावे में आकर एक-दूसरे पर वार करने की मुर्खता करते हैं। आंतरिक स्थितियों में ढेरों कमियां है जिसे दुरूस्त करना जरूरी है। अर्थात् विधायक कार्यों में अपनी ताकत खर्च करने की अपेक्षा एक-दूसरे को ध्वस्त करने पर उतारू है, इसे विड़बना ही माना जाएगा।
      भारत और पाकीस्तान का जन्म जिन स्थितियों में हुआ वह स्थितियां अच्छी नहीं थी। ब्रिटिशों ने जो जहरिले बीज बोए थे उससे इन दो बच्चों का जन्म हुआ था जो सही मायने में नाजायज ही था। इसलिए विभाजन के बाद की मार-काट, खून-खराबा, सांप्रदायिक हिंसा और आगजनी को देख कर महात्मा गांधी जी ने कहा था, ‘मैंने ऐसी आजादी का सपना नहीं देखा था’ आजादी की सुबह पर अफसोस और दुःख के साथ यह बूढा फकीर कहीं अज्ञातवास में जाने के लिए मजबूर था, ‘आधी रात की नाजायज संतानों से घबरा कर।’

आधार ग्रंथ
आधी रात की संतानें (उपन्यास) – सलमान रश्दी,
वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम – 1981, आवृत्ति – 2010, मूल्य – 225.

                       डॉ. विजय शिंदे
                         देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद.
                         ब्लॉग - साहित्य और समीक्षा  डॉ. विजय शिंदे

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