किसी जमाने में राजस्थान दुनिया के व्यापार का केंद्र था. अंग्रेजों के आने से पहले तक. भारत के सारे अन्तराष्ट्रीय व्यापारिक मार्ग राजस्थान से ही गुजरते थे. पूर्वी और दक्षिणी भारत से चीन, योरोप और अफ्रीका जाने के लिए यहीं से होकर जाना होता था. समुद्री व्यापार तब कम था और हवाई और रेल मार्ग से व्यापार तो बहुत बाद में शुरू हुआ था. उस समय पाली और राजगढ़ (चुरू) अंतर्राष्ट्रीय मंडियां हुआ करती थीं. बीकानेर (जांगल प्रदेश) का भी बड़ा नाम था. इन मार्गों के आसपास के सभी छोटे बड़े शहर अपनी सम्रद्धि और संस्कृति के लिए जाने जाते थे. किसी न किसी उत्पाद के लिए इन शहरों को जाना जाता था. आज भी उस स्वर्णकाल के निशान राजस्थान के गांव गांव में बिखरे पड़े हैं.
लेकिन अंग्रेजों ने सब चौपट कर दिया. व्यापार के मार्ग की दिशा बदल दी. कलकत्ता, बम्बई और मद्रास के रास्ते व्यापार बढ़ा दिया. रेलों से माल इन शहरों की तरफ जाने लगा. व्यापार गया तो हमारे व्यापारी भी उधर चले गए. बिडला, सिंघानिया, बांगड आदि सब गए. ऐसे में परिवहन की कमान संभालने वाले बंजारे भी बेरोजगार हो गए. साथ ही जब अंग्रे
जों की फेक्ट्रियों में बिका माल हमारे बाजार में आ गया, तो कारीगर बेकार हो गए. सुनार, कुम्हार, चर्मकार, सुथार, दरजी, लोहार, बुनकर, छीपे आदि कला के पुजारी निराश होकर बैठ गए. नतीजन राजस्थान जो पहले एक उत्पादक प्रदेश था, बाजार बन गया. भारत माँ की आँख का तारा था जो, वह प्रदेश पिछड़ा कहलाने लगा. आज भी हम उसी हालत में हैं और नाकारा नेता 'विशेष दर्जे' की भीख मांगने को बड़ा काम समझते हैं. खेती और घरेलू उद्योग का उत्पादन बढाने की भाषा ही उन्हें नहीं आती.
लेखक अभिनव राजस्थान अभियान के प्रणेता हैं
लेखक अभिनव राजस्थान अभियान के प्रणेता हैं
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