व्यंग्य:आदमी की जात अब समझदार हो गई है

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http://manikkealekh.blogspot.in/ से सादर साभार


आदमी की जात अब  समझदार हो गई है, खाने-पीने की पार्टी हो तो किसे बुलाना है,बड़ा चुनचुन कर बुलाते है ये लोग .जिनसे आने वाले महीने  में कोई काम है,उन्हें भूल जाना उनके बस का नहीं है.सेलेरी  देने वाले बाबूजी,कम फ़ीस में इलाज करने वाला डॉक्टर,कोर्ट के खजांची को बुलाना ,उनकी पहली लिस्ट का हिस्सा होता हैं.कलाकार,उद्घोषक,अध्यापक,डाकिया,दूधवाला,प्रेस वाला उनकी अंतिम लिस्ट के हिस्सेदार हैं,इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है.नेताजी से मिलने वाला टटपूँजिया  बिचोलिया उनका मुख्य अतिथि बन जाए तो  कृपया दांत के नीचे अंगुली ना दबाएँ.ये बातें फिजूल बन गई है.सीधे काम आने वाले आदमी की चलती है.कला से रिश्ता  आज के आदमी का कुछ नहीं लगता  है. चूल्हा  जलता है तो सिर्फ चुगलखोरी,बदमाशी,भ्रष्टाचार और चालाकी से.बाकी की ज़िंदगी का इस मतलबी दुनिया में कुछ काम नहीं.माफ़ करें.

  रोज़मर्रा की जिन्दगी में कभी कभार ही जब लोग खाने पे बुलाते है,तो घर परिवार का आलम अलग ही नज़र आता  है. पत्नी चार दिन पहले से ही पड़ौसियों को खबर दे आती है कि वे  जीमने जा रहे हैं.कपड़ों को लेकर प्लान बनाए जाते है.जब कि कई बार तो बुलाने वाले भी इतनी तैयारी खिलाने के लिए नहीं करते हैं.खैर बेगानों की शादी में अब्दुला दीवाना बनने वाले  हमारे  एक पडौसी जब कुंवारे थे  तो बड़ी  शान से पार्टी में जाते ,लोगों से मिलते खाना खाते,तीन चार बार अलग अलग प्लास्टिक का  गिलास बिगाड़ते और रह-रहकर पानी पीकर शान बढाते नज़र आते.अपने  मकान से बहुत दूर खाने पर  जाने की पड़े तो फिर  वो ही  पड़ौसी किसी और पड़ौसी की गाड़ी पर  लटक कर जाते,तब परेशानी और  बढ़ जाती थी. जब तक पडौसी खाए तब तक उन्हें लाने वाले को रुकना पड़ता था.बेमन से ही सही मगर लोगों को देखकर  मुस्कराना पड़ता था.खाने में एक भी पहचान का नहीं मिले तो मुसीबत और भी बढ़ जाती.कई बार देर से जाने पर ख़ास ख़ास मिठाई तो ख़त्म हो जाती  है और तो और साथ ही कटोरियाँ मिल जाती है मगर  चम्मच नहीं मिल पाते .
मगर अब हमारे उन पड़ौसी भैया जी की शादी हो गयी है, वे एक बच्चे के बाप भी है. जब भी शादी में जाने की सोचते ,पत्नी को तैयार होने में सब्जी मंडी हो आने में जितनी देर होती है फिर ऊपर से बच्चे के कपड़े बदलने का काम पति के जिम्मे होता है.खाने में लोगों से मिलते  वक्त वैसी मुस्कराहट तो अब रही नहीं. पत्नी के कहने पर लिफ़ाफ़े में भी पैसे कुछ ज्य़ादा रखने पड़ते हैं . घर का एक  बन्दा पहले बच्चे को संभाले तब जा कर दूजा खा पाटा  है.लोगों से हाथ मिलाते ही अपनी पत्नी को भी मिलवाना पड़ता है. कुछ ना भी कहो तो भी जान-पहचान के लोग छोटे बच्चे के गाल खींच  लेते है.अलाल्लाला कहते कहते .

बहुत दिनों में मिले आदमी के पास कोई बिंदु नहीं हो भी वो ये तो कहने का हक़ रखता है कि '' आजकल आप फ़ोन नहीं करते,आपकी तबीयत  कुछ डाउन लग रही है. कहीं बीमार थे क्या?,घर आओ,चलो मिलते हैं,'' भैयाजी अभी जब मिल रहें  हैं तो  दिल लगाकर क्यों नहीं मिल नहीं रहें ? ,फिर क्या  गारंटी की घर बुलाने पे मिल जाएंगे ?.कोई आपको देखेगा तो ,कोई लगातार आपकी पत्नी को देखेगा.जीवन की भागादौड़ी में  हमारे वो पड़ौसी भैया  अब इतने अप-टू-डेट नहीं रह पाते. जैसे  तैसे शर्ट पहनी -पेंट डाली और  चल पड़े खाने में.पार्टी में कई  बार हमारे साथी नाचने को कहते हैं जैसे हमने तो नाचने का ठेका ले रखा हो.एक बार कोई आपका ठुमका देख लेगा तो छोड़ेगा नहीं कभी .ठुमका लगाते लगाते कभी-कभार हमारे पुराने वक्त की पोलें खुल जाती है.तो ठुमके पे भी दोस्तों के ठहाके लग जाते हैं.
वैसे जीमने जाने के कई  फायदे भी है.उधार लेने और देने वाले एक जगह मिल जाते है.लम्बी उधारी का हिसाब भी खाने की प्लेट पर हो जाता है.औरतें मोका पा कर कई बार इतना ज्य़ादा खा लेती  है ,जैसे कि ये लास्ट बारी हो,आगे से अकाल  की घोषणा हो चुकी हो.या कि फिर  भोजन की थाली देखकर लगे मनो माताजी  पूजने जा रही हो.खाएं कुछ नहीं मगर लेंगे सब कुछ  थोड़ा-थोड़ा . खाने में जाने से पहले लिफ़ाफ़े में क्या रखना है इस विषय पर राष्ट्रीय स्तर की बहस घर पर होने के बाद ही खाने पे जाते  है. पुराने लेनदेन का हिसाब लगाया जाता है.सच मायने में ये परम्पराएं बेहद गंदी है.

पुरातन संकृति की कई परतें  जंग खा चुकी है कुछ आज भी चमकदार है. मतलबी दुनिया का मतलबी आदमी अपने लाभ को देखकर इन परतों को खोलता और छिपाकर रखता है.कई बार लगता है कि जीवन बहुत तेजी से भाग रहा है मगर उसी वक्त ये भी लगता है कि जीवन के बहुत से उजले पहलू इस मतलबीपन में पीछे छूट गए लगते हैं.इस संस्कृति की वजह से ही हमारे घरों में बेमतलब की पेटियां भरी है जिसमें लेनदेन के कपड़े  ही भरे हैं.ये बहुत बड़ा ऐसा निवेश हैं जिसे रखना रीछ के कान पकड़ने जैसा लगता है.परम्परा बंद कर ,पेटी नहीं रखने का फतवा जारी करें तो  करें तो बूढ़े नाराज़,मां-बेटी नाराज़,,वहीं दूजी ओर रिश्तेदार  लोगों के कपडे मंगाने पर बक्से  खोलने की झंझट ख़तम.अवसरों पे खंगाले जाने वाले ये बक्से भी कहीं न कहीं इस दोगली ज़िंदगी के पहलुओं के रूप में शामिल हैं.

इतिहास में स्नातकोत्तर.बाद के सालों में बी.एड./ वर्तमान में राजस्थान सरकार के पंचायतीराज विभाग में अध्यापक हैं.'अपनी माटी' वेबपत्रिका पूर्व सम्पादक है,साथ ही आकाशवाणी चित्तौड़ के ऍफ़.एम्. 'मीरा' चैनल के लिए पिछले पांच सालों से बतौर नैमित्तिक उदघोषक प्रसारित हो रहे हैं.उनकी कवितायेँ, डायरी, संस्मरण, आलेख ,बातचीत आदि उनके ब्लॉग 'माणिकनामा' पर पढ़ी जा सकती है.

मन बहलाने के लिए चित्तौड़ के युवा संस्कृतिकर्मी कह लो. सालों स्पिक मैके नामक सांकृतिक आन्दोलन की राजस्थान इकाई में प्रमुख दायित्व पर रहे.आजकल सभी दायित्वों से मुक्त पढ़ने-लिखने में लगे हैं. वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा से हिन्दी में स्नातकोत्तर कर रहे हैं.किसी भी पत्र-पत्रिका में छपे नहीं है. अब तक कोई भी सम्मान. अवार्ड से नवाजे नहीं गए हैं. कुल मिलाकर मामूली आदमी है.

1 टिप्पणी:

  1. भाई शुक्रिया मैंने अपना ही आलेख दिनों के बाद फिर अच्छा लगा
    आप इस ब्लॉग को शुरुआत से आखिर तक ले जाएँ। सफ़र जारी रहे यहीं कामना है।इस बहाने आप मेरे जैसे कच्चे लेखक के बहाने शुरू कर चुके इस ब्लॉग से अपने सफ़र को जमे हुए और नामचीन लेखकों की सामग्रियां छापते हुए पाठकों को अच्छा साहित्य परोसे।अपने इलाके के बारे में लिखे।यही कामना है। या फिर जो आपने यहाँ के लिए सोचा हो वो।एक बार फिर इस नाचीज को नवाज़ने का शुकिर्या दोस्त।
    माणिक

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